तो क्या हिन्दू महासभा अंग्रेज़ों के हाथों की कठपुतली बनी हुई थी?

1935 में पहली बार प्रकाशित होने वाली अपनी किताब द इंडियन स्ट्रगल में सुभाष ने हिंदू महासभा की कड़ी आलोचना की थी। उन्होंने लगातार इसे प्रतिक्रियावादी कहकर पुकारा। वह इसमें इस्लामी कट्टरता की छवि देखते थे। दरअसल, जिस हिंदू-मुस्लिम एकता को गांधी और खुद सुभाष जरूरी मानते थे, उसे कमजोर करके, बकौल सुभाष, ‘हिंदू महासभा अंग्रेजों के हाथों की कठपुतली बनी हुई है।’ बोस लिखते हैं, ‘मुस्लिम लीग की भांति हिंदू महासभा न केवल पुरातन राष्ट्रवादियों से, बल्कि ऐसे लोगों से मिलकर बनी थी, जो राजनीतिक आंदोलन में शरीक होने से घबराते हैं, और खुद के लिए एक सुरक्षित मंच भी चाहते थे।’ इस तर्क में वजन भी था। बोस, नेहरू और पटेल के ठीक उलट, जिनमें से हर एक ने तमाम वर्ष जेल में बिताए, 1930 और 40 के दशक के हिंदुत्ववादियों ने अंग्रेजों के विरोध में कोई कदम नहीं उठाने का फैसला किया था। इन्हीं में से एक जनसंघ के संस्‍थापक और भाजपा के आइकन डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी थे। मुस्लिम लीग की विचारधारा की तरह हिंदुत्व की विचारधारा भी धार्मिक हठधर्मिता को सत्य पर तरजीह देती है। मगर पिछले कुछ दिनों में जो हुआ, वह वाकई हैरत में डालने वाला है। नियोजन और धर्मनिरपेक्षता के मुद्दों पर बोस और नेहरू को एक साथ देखा जा सकता है। इसी तरह, गांधी के प्रति झुकाव और इस विचार को लेकर कि दूसरे विश्वयुद्ध में धुरी शक्तियां, मित्र राष्ट्रों की तुलना में ज्यादा बुरी थीं, नेहरू और पटेल की सोच एक जैसी थी। मगर भारत को स्वतंत्र देखने की इच्छा को छोड़कर राजनीतिक, निजी या विचारधारा के मोर्चे पर बोस और पटेल में कुछ भी समानता नहीं थी। जो यह मानते हैं कि मुस्लिमों को देश के प्रति अपनी वफादारी साबित करने की जरूरत है, वे नेहरू पर हमला बोलने के लिए पटेल के कंधे का सहारा ले सकते हैं। वहीं, जिनका यह मानना है कि अंग्रेजों की तुलना में जापानी कम क्रूर उपनिवेशवादी थे, वे नेहरू के खिलाफ बोस को खड़ा कर सकते हैं। मगर नेहरू को कठघरे में खड़ा करने के लिए पटेल और बोस के नाम का एक साथ उपयोग करना, न केवल राजनीतिक अवसरवादिता है, बल्कि इससे भी बदतर, बौद्धिक दिवालियापन है।