तो ख़ुद तक़दीर यज़्दाँ क्यों नहीं है?

ज़ाहिद अली ख़ां, मुदीर रोज़नामा सियासत: ज़िंदा क़ौमों का मदार‍ और-क़रार उन की ज़हानत पर है। जिन अक़्वाम में ज़हीन अफ़राद की तादाद जितनी ज़्यादा होगी, वो क़ौम उतनी ही बाशऊर तसव्वुर की जाएगी।

ज़हानत अपने अतराफ़-ओ-अकनाफ़ के पूरे जायज़ा के बाद अपने लिए राहें मुतय्यन करती है । अपने फ़ित्री मीलान और रुजहान की कोन्पल को प्रवान चढ़ाने के लिए वो अपने माहौल की ज़रख़ेज़ी का कभी जायज़ा लेती है और कभी फ़िज़ा-ए-को साज़गार महसूस कुरकी, अपनी तख़लीक़ी सलाहीयत को प्रवान चढ़ाती है।

हिंदूस्तान हमेशा ही ज़हानतों के लिए ना सिर्फ ज़रख़ेज़ रहा, बल्कि अतराफ़-ओ-अकनाफ़ के ममालिक से जब कभी ज़हीन अफ़राद ने हिंदूस्तान की तरफ़ रुख किया तो इस ज़मीन ने उन की पज़ीराई है।

आते हुए वो अपने साथ अपनी तहज़ीब और शहर नशीनी के जो अत्वार साथ लाए थे, हिंदूस्तान ने इन को भी क़बूल करलिया। इस तरह बाहम तहज़ीबों और लिसानियात की आमेज़िश और रंग-ओ-नसल के इमतियाज़ से परे एक मुशतर्का तहज़ीब वजूद में आई। एक हमा रंगी तहज़ीब, एक रंगोली रचाई, जिस में हर रंग ज़िंदगी थीथा, जिस के हर रंग में ज़िंदगी थी।

इस ज़मीन पर बसने वालों को ये एहसास था कि वो ज़मीन पर चल रहे हैं, इसलिए उन के पाँव भी ज़मीन पर थी। इन को अपनी मिट्टी से इस लिए भी मुहब्बत थी कि इन की ख़मीर में इस मिट्टी की महक भी थी और रंग भी। आज इंसान शायद ज़मीन पर नहीं चलता, रोय ज़मीन पर चलता है और शायद इसी लिए वो ज़मीन के लम्स से भी महरूम है।

इस वक़्त इंसान ज़मीन पर उल्फ़तों की आबयारी करता था और मुहब्बतों की फ़सल काटता था। अब जाने हम बदल गई, या ज़माना बदल गया, या हवा बदल गई। सारा रंग चमन बदल गया, रुत बदल गई।

हमारे रंग नौजवान ख़ाबों के रंग की तरह कच्चे नहीं थे, जो ओस में भीग कर फैल जाते या एक दूसरे में गड्डमड्ड होकर बिखर जाती। मैं सोच रहा हूँ कि रंग इतने ही ख़ूबसूरत और दिलकश हैं। हिंदूस्तान में भी पाकिस्तान में भी, कुछ धुंद सी है, जैसे कहर की दुबैज़ चादर। धुंद छट जाये तो फिर शायद हर रंग निखर आये। चेहरों का रंग, मुहब्बत के जज़बात का रंग।

तब धड़कनें भी एक साथ हम आवाज़ हो सकती हैं। ज़रूरत इस बात की है कि नफ़रतों की धुंद छट जाई, सिर्फ दोनों मुल्कों के दरमयान नहीं, बल्कि ज़मीन पर नफ़रतों के बूए हुए बीजों की बेख़कुनी भी होनी चाहीये।

मुझे यक़ीन है कि वो किसी ना किसी मुस्तक़बिल के लम्हा में हो जाएगा। सारी दुनिया उस लम्हा की इंतिज़ार में है।

वो लम्हा शायद क़रीब है, शायद क़रीबतर हो जाय और वो आ जाये। लेकिन इस इंतिज़ार में हम हाथ पर हाथ धरे क्यों बैठे रहें।

हम अपनी नई नसल को ज़हानत का तोशा साथ दे कर मुतमइन नहीं हो सकते कि इन की ज़िंदगी आराम से कट जाएगी, उन को परवाज़ों के लिए पर चाहीये। सरहदें काग़ज़ी नक़्शों पर ज़रूर हूँ, दलों और
मुहब्बतों के बीच नफ़रतों और अदावतों के ख़ारदार तार की सरहदें क्यों हैं?।

नई नसल अपने NAVIGATION SYSTEM में बे ख़लल परवाज़ की आर्ज़ूमंद है, लेकिन हम ने अपने अतराफ़ कुछ और हिसार बना ली, कुछ और नई अनदेखी सरहदें उभरती जा रही हैं। इलाक़ाई सरहदें, लिसानी सरहदें, क़बाइली सरहदें, फ़िर्कावारी सरहदें।

अदब जो तमाम सरहदों से मावरा था, अब इस के अतराफ़ भी ख़ुद साख़ता पहरे और चौकियां क़ायम हो गई हैं। मैं इन पहरा दारों और चौकीयों का ज़िक्र आगे करूंगा, लेकिन अदब के हवाले से किया हम जोश और् मलीहाबादी को भुला पाए हैं?।

क्या जमील उद्दीन औलियाओं के दोहे मेलों में सुंदर नार को देख कर नहीं गाय जाती?। क्या अमीर ख़ुसरो की कह मुकरनीयां सरहदों से मावरा-ए-नहीं हैं?। क्या अहमद नदीम क़ासिमी, अहमद फ़राज़, इफ़्तिख़ार आरिफ़, नसीर तुराबी की तख़लीक़ात सरहदों से बे परवाह दोनों तरफ़ यकसाँ मक़बूल नहीं हैं?। प्रवीण शाकिर की नागहां मौत पर हम को भी बेहद अफ़सोस हुआ। तितली और ख़ुशबू हम से बिछड़ गई।

अदब के अतराफ़ जिन ख़ुद साख़ता पहरों और चौकीयों का मैंने ज़िक्र क्या, वो सयासी सरहदों से कुछ ज़्यादा ही ख़ारदार हैं। इन सरहदों के अंदर सिर्फ उन्ही को अमान मिलती है, जिन के पास फ़िक्र-ओ-फ़न ना सही, मगर उन के दहन में क़सीदों की ज़बान हो। सयासी हवालों से हुकूमतों में अपना रसूख़ पैदा करके ये किसी ना किसी ओहदे पर बिराजमान हो जाते हैं और अपने हाशिया बर्दारों के साथ जगह जगह तोतों की रट लगाए रहते हैं। वही मक़ाले जो पढ़े गई, वही मज़ामीन जो पामाल हो गई, वही कोशिश कि इन का अदबी आक़ा उन से ख़ुश रहे। तख़लीक़ के करब से ये नाआशना लोग दूसरे फ़नकारों को हदफ़ बनाने से नहीं चूकती।

अदब के ख़ुद साख़ता इजारा दारों की ये ख़ू निराली है कि वो किसी ऐसी महफ़िल में शरीक नहीं होती, जहां उन का हरीफ़ भी मौजूद हो। ऐसे में हुआ ख्वाहों की बन आती है। हुनर बेहुनरी में यकताए रोज़गार उन अफ़राद की वजह से अच्छे फ़नकार अपने मसतहक़ा मुक़ाम से महरूम हैं।

कभी अदब बराए अदब था, लेकिन बीसवीं सदी में अदब बराए ज़िंदगी की तहरीक ने अदब को नई जिहात से रोशनास करवाया। इस के बाद तो अदब में बहुत सारी तबदीलीयां आएं। तरक़्क़ी पसंद अदब के बाद अदब जदीद का दौर दौरा रहा, नई अलामतें, तराकीब और उस्ता रे वजूद में आई। इज़हार-ए-ख़्याल पर जहां पाबंदी आइद हुई, वहां अलामतों और इसतारों ने तरसील और इबलाग़ में एक अहम किरदार अदा किया। उर्दू शायरी में सॉनेट, हाइकू, सलासी, माहीए वजूद में आई।

ये अस्नाफ़ दूसरे ज़बानों से उर्दू में आई। उर्दू के दामन में इतनी वुसअत तो है ही कि वो इन तमाम को जगह दे सकी। यूं भी दीगर अस्नाफ़ सुख़न दूसरी ज़बानों ही से उर्दू में आई। गीत और दोहे हिन्दी से, क़सीदा और मर्सिया अरबी से, ग़ज़ल और मसनवी फ़ारसी से, तब ही तो उर्दू एक रईस ज़बान की सूरत इख़तियार कर गई। उधर हिंदूस्तान में फ़राक़औ ने दो ग़ज़ला को रिवाज दिया।

उधर सब से पहले हिमायत अली शाअरऔ ने सलासी का तजुर्बा किया। जदीदीयत का दौर बड़ी तेज़ी से गुज़र गया, अब माबाद जदीदीयत के तज़किरे मुबाहिस और अदबी महफ़िलों में हैं। क्लासिकी अदब के दौर से ख़ुदाए सुख़न मीर तक़ी मीरऔ, ग़ालबऔ, आतशऔ, सोदाऔ, नासख़औ, दाग़औ की सूरतों हमारी नज़र में हैं।

अनीसऔ-ओ-दबीरऔ जैसे मारकৃ अलारा-ए-शारा-ए-ने मर्सिया को नई जिहत से रोशनास करवाया, तो नज़म के मैदान में जोशऔ और मजाज़औ ने अपने जौहर दिखलाई। तरक़्क़ी पसंदों में फ़ैज़, अहमद नदीम क़ासिमी, मख़दूम, अली सरदार जाफरी, कैफ़ी आज़मी, साहिर लुधियानवी, जांनिसार अख़तर के नाम भुलाये नहीं जा सकती।

ये वो रोशन चिराग़ हैं, जिन से आज भी कई चिराग़ रोशन हो रहे हैं। पाकिस्तान में हालिया अर्सा में अहमद फ़राज़, इफ़्तिख़ार आरिफ़, प्रवीण शाकिर, किशवर नाहीद ने नए ज़ावीए तलाश किये। इसी तरह से नस्र निगारी में अस्नाफ़ का तज़किरा हो तो इस के लिए शायद एक मक़ाला लिखने की ज़रूरत पेश आई।

मुहम्मद हुसैन आज़ाद, ख़्वाजा हसन निज़ामी, अल्लामा राज़िक अलख़ीरी तो बुज़ुर्गों में हैं, नावल निगारी में इधर कृष्ण चन्द्र, करৃ उल-ऐन हैदर हूँ तो उधर पाकिस्तान के असरी नावल निगार शकील आदिल ज़ादा, मुही उद्दीन नवाब, एम ए राहत, दोष बह दोष नज़र आते हैं। अफ़साने अपनी रविष पर गामज़न हैं। जीलानी बानो, इक़बाल मतीन इधर अपना हक़ अदा कर सके तो पाकिस्तान में नासिर बग़्दादी, फ़र्ख़ जमाल और उन के हम असुरों ने अदब में अपने नक़्श मुर्तसिम की।

नक़द में नयाज़ फ़तह पूरी, जमील जा लॅबी और प्रोफ़ैसर फ़रमान फ़तह पूरी तक के नाम बड़े इफ़्तिख़ार से लिए जा सकते हैं।

आज मसला ये है कि उर्दू की इतनी रईस तारीख़ और रोशन अबवाब के बावजूद जितना सरमाया उर्दू पढ़ने वालों तक पहुंच रहा हैं, इस के मुवाज़ी ख़ातिरख़वाह तख़लीक़ी, तन्क़ीदी, तहक़ीक़ी मवाद क्यों नहीं हासिल हो रहा हैं?। अरसा-ए-दराज़ से ये जमूद क्यों तारी हैं?। कहीं ऐसा तो नहीं कि यूनीवर्सिटीयों में मौजूद प्रोफ़ेसरान अब मुताला के ख़ूगर नहीं रही।

वो सिर्फ़ निसाब पढ़ कर इस मुक़ाम तक पहुंचे हैं और तालिब-ए-इल्मों को सिर्फ मुरव्वजा निसाब तक महिदूद रख पा रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि वो सिर्फ़ प्रोफ़ैसर के ओहदा पर फ़ाइज़ हैं, उन के अंदर उस्ताद ही नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि सिर्फ चंद एक लोग उर्दू के हवाले से अपनी शनाख़्त चाहते हैं और उर्दू ही के हवाले हर आसाइश, ओहदा, ख़िताब और ताज़ीम-ओ-तकरीम हासिल करना चाहते हैं।

ख़ुदा करे कि मेरे अंदेशे सब के सब ग़लत हूँ। लेकिन अगर इस में कोई भी बात सच्च हो जाय तो फिर हुकूमतों से उर्दू की तरक़्क़ी और बक़ा का शिकवा क्यों हो। उर्दू को लौटने वाले उर्दू के लुटने का मातम क्यों करें?। हुकूमत की अदम तवज्जही की शिकायत क्यों हो?।

सियासतदानों का उर्दू से बेवफ़ाई का शिकवा क्यों हो?। हमारी उमूमी ज़िंदगी में क़ुदरत ने हम को हर सलाहीयत से सरफ़राज़ किया ही। हमारे रिज़्क में कोताही का शिकवा ख़ालिक़ से मुनासिब नहीं है, बल्कि हमारे नाक़िस और नातराशीदा निज़ाम से होना चाहिये। जो काम हम कर सकते हैं और हम नहीं कर रहे हैं, इस पर नज़रसानी, जहद और सुई की ज़रूरत हैं, इस लिए कि:अबस है शिकवा-ए-तक़दीर यज़्दाँ तो ख़ुद तक़दीर यज़्दाँ क्यों नहीं है|