दंगाई कभी किसी खास जाति धर्म के नहीं होते, वह सिर्फ एक हैवान होता है

पूरी दुनिया का ध्यान आईएसआईएस ने अपनी आतंकवादी घटनाओं की तरफ खींचा हुआ है. ये आतंकवादी घटना आईएसआईएस के द्वारा अंज़ाम ज़रूर दी जा रही है, लेकिन चर्चाओं में इस्लाम और मुसलमान है. आख़िर हो भी क्यों न. ये लोग आतंकवादी घटना को अंज़ाम देने से पहले अल्लाहु अकबर कहते है जिससे हर किसी को यह लगने लगता है की अल्लाह का नाम तो इस्लाम धर्म को मानने वाले कोई मुसलमान ही ले सकता है, जैसे भारत में दंगे के समय दंगाइयों के द्वारा जय श्रीराम शब्द कहना पीड़ित के दिमाग पर ये छाप छोड़ देती है कि ये हिन्दू थे. जबकि इन दोनों को अपने मजहब से कोई वास्ता नहीं.
अल्लाहु अकबर अरबी शब्द है जिसका मायने अल्लाह महान है होता है, ये शब्द नमाज़ पढ़ते वक़्त भी कहा जाता है. नमाज़ अच्छे अमाल यानि नेकी के लिए की जाती हैं जो इंसान को दिन व दुनिया की मुसीबत से बचा कर अच्छे कामों की तरफ ले जाती हैं. समझने की बात ये है कि जो अल्लाह महान है जिसकी हिदायतें हम फ़र्ज़ के शक्ल में पूरा करते हैं उसका नाम लेकर किसी की जान लेने की इजाज़त इस्लाम कभी नहीं दे सकता या यूँ कहें की इस्लाम धर्म जो शांति, भाईचारे, इंसाफ के लिए आई वह खून बहाने वालों के साथ न कभी इतिहास में थी और न कभी भविष्य में हो सकती है. इसलिए ये समझना जरूरी है कि दंगाई कभी किसी खास जाति धर्म के नहीं होते, वह सिर्फ एक हैवान होता है जिसके अंदर की इंसानियत खत्म हो गयी हो.
लगातार यूरोप में आईएसआईएस का हमला ये सोचने पर मजबूर करता है कि इतनी आसानी से यूरोप पर ये हमला कैसे कर पा रहे हैं. एक तो बड़ी संख्या में शरणार्थिओं का यूरोप आना अब संदेह की नजर से देखा जा रहा है. शक़ जताया जा रहा है कि शरणार्थिओं के साथ बड़ी आसानी से आतंकवादी आ जाते है, बाद में अपनी प्लानिंग को विस्फोटक रूप में अंज़ाम देते हैं. ऐसे हालात में वहां रह रहे मुसलमान इस्लामोफोबिया का शिकार होते है. शरणार्थिओं को भी शक़ की नज़र से देखा जाने लगा हैं. वहां रहने वाले साधारण मुस्लिम परिवार का मानना है कि बाहर जाते वक़्त हमेशा ये अंदेशा रहता है कि हमारी दाढ़ी पर उगे बड़े बाल या औरतों का हिज़ाब देखने के बाद, जिससे ये लगने लगता है कि हम मुसलमान है, लोगों की निगाहें हम पर टिक जाती है जैसे कि हमने ही कुछ ग़लत किया है. आईएसआईएस या दूसरी चरमपंथी संगठन ऐसा क्यों करते हैं. क्या वो पूरी दुनिया में इस्लाम का कब्ज़ा चाहते हैं अगर ऐसा हैं तो पाकिस्तान, बांग्लादेश या मदीने में हमला क्या साबित करता हैं. बम से दरगाहों का उड़ा देना इस्लाम को स्थापित करने का जरिया कैसे हो सकता हैं.खास कर दरगाह जो सूफियों की क़ब्र होती हैं जिसे हर मुसलमान जो वहाबियत को नहीं मानता अपनी इबादत के लिए पाक जगह मानता हैं.
लेकिन जिस तरह आज दरगाहों पर भी चरमपंथियों के द्वारा हमले किए जा रहे हैं वे इस बात को साबित करता हैं कि ये लोग उस सारे ज़रिये को खत्म कर देना चाहते हैं जो समाज को सांझी संस्कृति को जोड़ कर रखते हैं जो मजहब के नाम पर इंसान को नहीं बांटते. इस्लाम हमेशा ग़ैर-बराबरी, अन्याय के ख़िलाफ़ रहा हैं. मोहम्मद साहब का हुक्म हैं कि जो सबसे हाशिए पर हैं, शोषित हैं उनकी मदद करो लेकिन यहां इस्लाम के नाम पर शोषण करने की नई रीत शुरू हो गयी हैं. जो धर्म सबसे ज्यादा लोकतान्त्रिक व्यवस्था को बढ़ावा देता हैं आज मौजूदा दौर में वह किसी हिटलरशाही के साथ कैसे हो सकता. इस बात को कोई भी मुसलमान अच्छे से समझ सकता हैं.
जरूरत इस बात की हैं कि इस तरह इस्लाम के नाम पर होने वाली आतंकवादी घटनाओं का विरोध सब से पहले मुसलमान ही करें. इस्लाम में कहीं भी हिंसा को जायज नही ठहराया गया हैं. ये समझना भी ज़रूरी हैं कि इस तरह के आतंकवादियों को कौन सहारा दे रहा हैं. हथियारों का इनके पास पहुंचना और आत्मघाती हमलों को अंज़ाम देना इनके लिए आसान कैसे हो जाता हैं. यूरोप ही नहीं बल्कि इनके निशाने पर उत्तर अफ्रीका भी अब हैं. पहले भी रहा हैं क्योंकि वहां नेचुरल रिसोर्सेज बड़े पैमाने पर हैं, इन पर कब्जा कौन चाहता हैं. जग जाहिर हैं कि पश्चिम का सहारा इनको मिला हुआ हैं जो अपने फायदे के लिए आतंकवादियों को पैदा करते हैं और जरूरत पूरा होने पर या खुद के लिए खतरा बन जाने पर बड़ी सफाई से उसे खत्म भी कर देते हैं. चरमपंथियों के शाखाओं का बढ़ना किसी एक दो देश के लिए नही बल्कि पूरी दुनिया के लिए खतरे की बात है. इससे निपटने के उपाय भी पूरी दुनिया को ईमानदारी के साथ बैठ कर करना होगा. नवयुवकों का चरमपंथी संगठन के साथ जुड़ना गंभीर समस्या है. इसकी एक बड़ी वजह बेरोजगारी भी है. बड़े पैमाने पर गरीबी भी इसके हिस्सेदार बन जाते है. निसंदेह पढ़े-लिखे अच्छे परिवार के बच्चे भी इसके शिकार हो रहे हैं. कुछ पैसों की लालच में तो कुछ ये सोच कर कि वह तो जिहादी हैं और अपने मजहब को बढ़ाने फैलाने का काम कर रहे हैं जिससे उसका अल्लाह उससे खूब खुश होगा. लेकिन क्या इसके लिए सिर्फ वही जिम्मेदार हैं. हमने धर्म के नाम पर जो समाज तैयार क्या हैं जिसमे हमेशा दूसरे को अपने से नीचा दिखाने की कोशिश रहती हैं. ज्ञान को अपने तक सीमित रखना. क़ाज़ियों, पंडितों के पढाए हुए को ही सच मानना. खुद से अध्ययन किए बगैर हम ज्ञानी होने में ज्यादा उम्मीद करते हैं. क्या ये सारी अपंग व्यवस्थाएं इन सब के लिए जिम्मेदार नहीं. जरूरत ये भी हैं कि हम अपनी शिक्षा व्यवस्था को भी ज्यादा वैज्ञानिक बनाएं जिससे कि दकियानूसी और संकीर्ण सोच की शिकार नई पीढ़ी न हों
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राहिला परवीन
लेखिका -जवाहर लाल नेहरु यूनिवर्सिटी में रिसर्च स्कॉलर है