नई दिल्ली: गत विधानसभा और लोकसभा चुनाव में दलित वोट बैंक के लिए सभी चुनावी दलों में दलितों को लुभाने को लेकर घमासान शुरू हो चुका है। समाजवादी पार्टी के साथ कांग्रेस व बीजेपी भी दलितों में अपनी पकड़ बढ़ाने के लिए हर हथकंडा आजमा रही है। रालोद जैसे छोटे दल भी दलित वोटों के सहारे नैया पार लगाने की आस लगाए हैं। दलितों का वोट बैंक पाने की फिक्र बीजेपी को सबसे अधिक दिख रही है क्योंकि गत लोकसभा चुनाव में मिले समर्थन को दोहराना उसके लिए बड़ी चुनौती है। दलितों में बसपा का असर कम होने का लाभ उठाने के लिए बीजेपी ने डॉ.अंबेडकर के साथ राजा सुहेलदेव और संत रविदास जैसे महापुरुषों की जयंती मनाने का सिलसिला शुरू किया हुआ है। 2012 के विधानसभा चुनाव में दलित वोटरों का एक खेमा बसपा से खिसक सपा के पाले में चला गया था जिसके कारण सपा सरकार सत्ता में आई थी। गौरतलब है कि दलितों को कभी कुत्ता और कभी नक्सली कहने वाली बीजेपी सरकार अब दलितों के सहारे अपनी नैया पार चाहती है। इससे बीजेपी का दोगला व्यवहार सामने आता है कि वह चुनावों में जीतने के लिए कुछ भी कर सकती है। दलितों के खिलाफ बयानबाजी करने वक़्त वह क्यों सोचते कि वह भी इसी समाज का हिस्सा है।