दस अहम सवालात

ए ईमान वालो! जब तन्हाई में बात करना चाहो रसूल (मुकर्रम सिल्ली अल्लाह अलैहि वसल्लम) से तो सरगोशी से पहले सदक़ा दिया करो। ये बात तुम्हारे लिए बेहतर है और (दलों को) पाक करनेवाली ही। और अगर तुम (उस की सकत) ना पाॶ तो बेशक अल्लाह ताली ग़फ़ूर रहीम ही। क्या तुम (इस हुक्म सी) डर गए कि तुम्हें सरगोशी से पहले सदक़ा देना चाआई। पस जब तुम ऐसा नहीं करसके तो अल्लाह ने तुम पर नज़र करम फ़रमाई, पस (अब) तुम नमाज़ सही सही अदा किया करो और ज़कात दिया करो और ताबेदारी किया करो अल्लाह और इस के रसूल की। और अल्लाह ताली ख़ूब जानता है जो तुम करते रहते हो। क्या तुम ने नहीं देखा इन (नादानों) की तरफ़ जिन्हों ने दोस्त बना लिया (ऐसी क़ौम को जिन पर ख़ुदा का ग़ज़ब हुआ। ना ये लोग तुम में से हैं और ना इन में से ये जान बूझ कर झूटी बातों पर कसमें खाते हैं। (सूरा अलमजादला।१२,१३,१४)
हज़रत सदर अलाफ़ाज़ल मुरादाबादी क़ुदस सिरा इस आयत का शान नुज़ूल ब्यान फ़रमाते हैं कि सय्यद आलम सिल्ली अल्लाह ताली अलैहि वसल्लम की बारगाह में जब अग़्निया-ए-ने अर्ज़-ओ-मारूज़ का सिलसिला दराज़ किया और नौबत यहां तक पहुंच गई कि फ़िक्रा-ए-को अपनी अर्ज़ पेश करने का मौक़ा कम मिलने लगा तो अर्ज़ पेश करने वालों को अर्ज़ पेश करने से पहले सदक़ा पेश करने का हुक्म दिया गया और इस हुक्म पर हज़रत अली मुर्तज़ा रज़ी अल्लाह अन्ना ने अमल किया। एक दीनार सदक़ा करके दस मसाइल दरयाफ़त कई। अर्ज़ क्या या रसूल अल्लाह सिल्ली अल्लाह अलैहि वसल्लम! (१) वफ़ा किया ही?। फ़रमाया तौहीद और तौहीद की शहादत देना (२) अर्ज़ किया फ़साद किया ही?। फ़रमाया कुफ्र-ओ-शिर्क (३) अर्ज़ किया हक़ किया ही?। फ़रमाया इस्लाम, क़ुरआन और वलाएत जब तुझे मिली (४) अर्ज़ किया हीला (यानी तदबीर) किया ही?। फ़रमाया तर्क हीला (५) अर्ज़ किया मुझ पर क्या लाज़िम ही?। फ़रमाया अल्लाह और इस के रसूल की इताअत (६) अर्ज़ किया अल्लाह ताली से कैसे दा-ए-मांगों?। फ़रमाया सिदक़-ओ-यक़ीन के साथ (७) अर्ज़ क्या क्या मांगों?। फ़रमाया आफ़ियत एक रिवायत में आक़िबत का लफ़्ज़ है (८) अर्ज़ किया अपनी नजात के लिए किया करूं?। फ़रमाया हलाल खा और सच्च बोल (९) अर्ज़ किया सुरूर किया ही?। फ़रमाया जन्नत (१०) अर्ज़ किया राहत किया ही?। फ़रमाया अल्लाह का दीदार।
जब हज़रत अली मुर्तज़ा रज़ी अल्लाह ताली अन्ना इन सवालों से फ़ारिग़ हो गए तो ये हुक्म मंसूख़ हो गया और रुख़स्त नाज़िल हुई और सिवाए हज़रत अली मुर्तज़ा रज़ी अल्लाह अन्ना के और किसी को इस पर अमल करने का वक़्त नहीं मिला।
मुनाफ़क़ीन अपनी आँखों से मुशाहिदा कर रहे थे कि इस्लाम तो रोज़ अफ़्ज़ूँ तरक़्क़ी कर रहा ही, उस की फ़ुतूहात का दायरा वसीअ होता जा रहा ही, माले ग़नीमत की कसरत होने वाली ही। दुनियावी मुनफ़अत के हुसूल के लिए वो मुस्लमानों में घुसे हुए थी, लेकिन उन की दिल्ली हमदर्दीयां यहूदीयों के साथ थीं और उन्हें को अपना दोस्त समझते थी। अल्लाह ताली का इरशाद है कि इन बदबख़्तों ने एक ऐसी क़ौम से दोस्ती क़ायम रखी ही, जिन पर ख़ुदा का ग़ज़ब ही। ना ये मुस्लमानों में दाख़िल हैं और ना यहूदीयों में। हदीस शरीफ़ में है कि मुनाफ़िक़ की मिसाल इस भेड़ की सी ही, जो दो रेवड़ों में सरगरदां फिर रही हो, उसे ये मालूम ना हो कि उसे किस रेवड़ के पीछे जाना ही।
Wएक रोज़ सरवर आलम सिल्ली अल्लाह ताली अलैहि वाला वसल्लम अपने हुजरा शरीफा में तशरीफ़ फ़र्मा थी। चंद सहाबा किराम भी हाज़िर थी। हुज़ूर सिल्ली अल्लाह अलैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया अभी तुम्हारे पास एक आदमी आएगा, जिस का दिल बड़ा सख़्त है और जो शैतान की आँखों से देखता ही। चुनांचे अबद अल्लाह बिन नबतल झट आगया, जिस की आँखें नीली, क़द छोटा और डाढ़ी पतली थी। हुज़ूर सिल्ली अल्लाह अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया तो और तेरे साथी क्यों गालियां देते रहते हैं?। इस ने क़सम खाई कि इस ने कभी गाली नहीं दी। इस के साथी आए और उन्हों ने भी किस्में खाईं, हालाँकि वो जानते थे कि वो झूटी किस्में खा रहे हैं