यूं तो कहना मुश्किल है कि मैंने पहले किस शाइर को पढ़ा लेकिन जिन पहले शाइरों को मैंने पढ़ा उनमें निदा फ़ाज़ली का भी नाम आता है, शुरुवात के दिनों में निदा फ़ाज़ली की शाइरी ही शाइरों के लिए प्रेरणा का काम करती है. 12 अक्टूबर 1938 को ग्वालियर में पैदा होने वाले निदा आम ज़बान के शाइर थे, वो आसान लफ़्ज़ों का इस्तेमाल करते हुए भी मुश्किल बातें बड़ी सफ़ाई से कर जाते थे.फ़िल्मी गीतों से थोड़ी दूरी बना के रखने वाले निदा ने रज़िया सुलतान और सुर जैसी फिल्मों में गाने भी लिखे हैं.भारत सरकार ने उन्हें पदम् श्री और साहित्य अकादमी जैसे पुरस्कारों से नवाज़ा है.
उनके कुछ शेर:
“तमाम शह में ऐसा नहीं ख़ुलूस ना हो,
जहां उम्मीद हो उसकी वहाँ नहीं मिलता “
“इतना आसाँ नहीं लफ़्ज़ों पे भरोसा करना
घर की दहलीज़ पुकारेगी,जिधर जाओगे”
“बिना पैरों के सर चलते नहीं हैं,
बुजुर्गों की समझदारी से बचिए”
“उठ उठ के मस्जिदों से नमाज़ी चले गए,
दहशतगरों के हाथ में इस्लाम रह गया”
“दुनिया जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है,
मिल जाए तो मिटटी है, खो जाए तो सोना है”
“घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें,
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए”
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