दहशतगर्द के कुछ अंजाने पहलु

वेद प्रताप वैदिक‌
आतंकवाद के कुछ अनजाने पहलू

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

पेरिस हमले के बाद यह विचार करना जरुरी हो गया है कि जिस आतंकवाद के खिलाफ दुनिया के सारे देश एकजुट हो रहे हैं, उसका असली स्वरुप क्या है और उसके फैलने के कारण कौन-कौन से हैं? यह जानना भी बेहतर रहेगा कि क्या ये सब पश्चिमी राष्ट्र इस आतंकवाद को समाप्त कर सकेंगे? 21 वीं सदी के शेष समय का विश्व क्या आतंकवाद रहित रह सकेगा?

जिस आतंकवाद से सारी दुनिया पीड़ित है, उसे इस्लामी आतंकवाद कहा जाता है। क्या सचमुच यह आतंकवाद इस्लामी है? इसमें शक नहीं कि इस आतंकवाद की जन्मभूमि और कर्मभूमि इस्लामी देश ही हैं। इस आतंक का तांडव कुछ गैर-इस्लामी देश में भी देखा जा सकता है। कभी भारत, कभी अमेरिका, कभी ब्रिटेन और कभी फ्रांस-जैसे देश भी इसकी चपेट में आ जाते हैं। लेकिन मूलतः यही उन्हीं देशों में बड़े पैमाने पर फलता-फूलता है, जहां मुसलमान लोग रहते हैं। इसके अलावा हर आतंकवादी हमला करते समय ‘अल्लाहो-अकबर’ का नारा लगाता है। वह अपने आतंक का समर्थन कुरान-शरीफ की आयतों से करता है। उसके संगठनों का खाद-पानी मस्जिदों और मदरसों से आता है। अब सीरिया और एराक में तो इस्लामी राज्य (दाएश) की स्थापना का नारा खुले-आम दिया गया है। इसी नारे को कभी अफगानिस्तान में ‘निज़ामे-मुस्तफा’ कहा जाता था। अब ‘दाएश’ ने बाक़ायदा अपने इस्लामी राज्य का एक खलीफा घोषित कर दिया है। उसका नाम है- अबू बकर अल बगदादी।

सीरिया के एक शहर को उन्होंने अपनी इस्लामी सल्तनत की राजधानी बना लिया है। सीरिया और एराक़ के कई हिस्सों पर ‘दाएश’ ने कब्जा कर लिया है। अरब और अफ्रीका के अनेक देशों में ‘इस्लाम के ये सिपाही’ अपनी जान हथेली पर रखकर लड़ रहे हैं। इनकी मदद के लिए फ्रांस, अमेरिका, ब्रिटेन, पाकिस्तान, मिस्र आदि देशों के सैकड़ों नौजवान अरब देशों में पहुंच गए हैं। ये सब नौजवान मुसलमान हैं और ये इस्लाम के नाम पर अपनी जान दांव पर लगाए हुए हैं।

तो फिर ‘दाएश’, ‘अल-क़ायदा’, ‘दावा’ और तालिबान जैसे संगठनों को हम पूर्णतः इस्लामी क्यों नहीं मानते? ये इस्लाम के लिए नहीं लड़ रहे हैं तो फिर किसके लिए लड़ रहे हैं? असलियत यह है कि ये सब संगठन और आंदोलन नाम तो इस्लाम का लेते हैं लेकिन ये पैदा हुए हैं अपने आंतरिक, पारस्परिक और अन्तरराष्ट्रीय झगड़ों के कारण! सीरिया में बशर-अल-अस्साद परिवार को हटाना है। उस पर तानाशाही, लूट, भ्रष्टाचार और अत्याचार के आरोप है। शियापरस्त होने के इल्जाम हैं। वह रुस की तरफदारी और अलमबरदारी करता है। इसीलिए वहाबी सउदी अरब उसे बर्दाश्त नहीं कर सकता। सउदी अरब के स्वार्थ अमेरिका, फ्रांस और ब्रिटेन के साथ नत्थी हैं। इसीलिए इन सारे मुल्कों ने मिलकर ‘दाएश’ के छापामारों के लिए करोड़ों डाॅलर और हथियार दिए ताकि वे अस्साद का तख्ता-पलट कर सकें। अस्साद भी कम खुदा नहीं है। उसने तीन लाख लोग मौत के घाट उतार दिए और लाखों लोग सीरिया से भागकर दूसरे देशों में शरण ले रहे हैं। अस्साद की तरफ से सीरिया के बागियों पर रुस बम बरसा रहा था। दूसरे शब्दों में लड़ाई अमेरिका और रुस लड़ रहे हैं, जमीन सीरिया की है और नाम इस्लाम का है। मैं पूछता हूं कि अमेरिका और रुस को इस्लाम से क्या लेना-देना है? उनका लक्ष्य तो तेल पर कब्जा करना है। इसी तरह जो नौजवान अपनी जान कुर्बान कर रहे हैं, उन्हें इस्लाम के नाम पर गुमराह किया जा रहा है। ‘दाएश’ और ‘अल-क़ायदा’ के जिन बड़े सरगनाओं को अभी तक पकड़ा गया है, उनके निजी आचरण के कई पहलू ऐसे पाए गए हैं, जो इस्लाम के सर्वथा विरुद्ध हैं। कुरान-शरीफ में तो लिखा है कि किसी एक बेकसूर आदमी की हत्या का मतलब है- पूरी इंसानियत की हत्या! क्या आपने कभी सोचा कि आतंकियों के हाथों से मरनेवाले हजारों लोगों में से कितने कसूरवार होते हैं और कितने बेकसूर? जिन्हें आतंकी कसूरवार मानते हैं, वे उनकी छाया तक भी नहीं पहुंच सकते? क्या कोई आतंकी आज तक सद्दाम हुसैन या मुअम्मद कज्जाफी या हामिद करजई या बशर-अल-अस्साद तक पहुंच सका? जो बेचारे मारे जाते हैं, वे बेकसूर ही होते हैं और ज्यादातर मुसलमान ही होते हैं? पेरिस में भी 8-10 मुसलमान मारे गए और अफगानिस्तान व पाकिस्तान में कौनसे हिंदू, यहूदी या ईसाई मारे जाते हैं? क्या कोई सच्ची इस्लामी ज़मात कभी मुसलमानों का थोक कत्ले-आम कर सकती है?