दारेन की भलाई तलब करो

फिर जब तुम पूरे कर चक्कू हज के अरकान तो अल्लाह को याद करो जिस तरह अपने बाप दादा का ज़िक्र करते हो, बल्कि इस से भी ज़्यादा ज़िक्र इलहि करो और कुछ लोग हैं जो कहते हैं ए हमारे रब! दे दे हमें दुनिया में ही (सब कुछ) नहीं है इस के लिए आख़िरत में कोई हिस्सा। और बाअज़ लोग हैं जो कहते हैं ए हमारे रब! अता फ़र्मा हमें दुनिया में भलाई और आख़िरत में भी भलाई और बचा ले हमें आग के अज़ाब से। (सूरत अलबक़रा।२००,२०१)

यहां एक जाहिलाना रस्म का बुतलान किया जा रहा है। पहले के लोग जब हज से फ़ारिग़ होते तो बैतुल्लाह के पास मजलिसें मुनाक़िद करते, जिन में वो अपने बाप दादा की तारीफों के पुल बांधा करते।

हुक्म होता है अपने रब करीम को याद करो, जैसे अपने बाप दादा को ज़ौक़ शौक़ से याद किया करते हो, बल्कि उनसे भी ज़्यादा अल्लाह ताआला को याद करो।

मुशरिकीन का ईमान आख़िरत की ज़िंदगी पर नहीं था, वो इसी (दुनियावी) ज़िंदगी को सब कुछ समझते। इस लिए हज करते वक़्त और दूसरे ख़ास औक़ात में दुनिया के मुताल्लिक़ ही सवाल किया करते।

उनके बरअक्स मोमिन सिर्फ़ दुनियावी मुनाफ़ा और मक़ासिद पर इकतिफ़ा नहीं करते, बल्कि दुनिया-ओ-आख़िरत दोनों के लिए वसीअ ज़हन फैलाते हैं।

हदीस शरीफ़ के मुताबिक़ बंदे में ख़ुदा का अज़ाब बर्दाश्त करने की क़ुव्वत नहीं है, इसी लिए रसूल-ए-पाक (स०) ने फ़रमाया कि तुम ये दुआ मांगा करो: रब्बनअ आतिनअ फी दुनिया हसनातों वफिल अखिरती हसनातों वक्हिना अज़बन नारo।