दावत-ए-इस्लाम

आप फ़रमाईए इताअत करो अल्लाह की और (इस के) रसूल(स०) की, फिर अगर वो मुँह फेरीं तो यक़ीनन अल्लाह ताआला दोस्त नहीं रखता कुफ्र करने वालों को। (सूरा आल इमरान।३२)
इस आयत में भी दावत-ए-इसलाम क़बूल करने वालों को हुक्म दिया जा रहा हैके तुम अल्लाह और इस के रसूल(स०) की इताअत करो। आजकल बाज़ लोग इस तहरीक को बड़ी सरगर्मी से चला रहे हैं कि हमें सिर्फ़ क़ुरआन का इत्तिबा करना चाहीए, सुन्नत नबवी(स०) की पैरवी की ज़रूरत नहीं।

हैरत होती है कि क़ुरआन के अहकाम का इत्तिबा करने के दावा के साथ वो इनकार सुन्नत की कैसे जुर्रत करते हैं। क्या क़ुरआन ने ही बेशुमार मुक़ामात पर निहायत वाज़िह और ज़ोरदार अंदाज़ में ये हुक्म नहीं दिया कि अल्लाह ताआला के इस रसूल(स०) बरहक़ की इताअत करो, इस का हुक्म मानव और इस के उस्वा-ए-हुसना-ए-को अपनाव‌, तो गोया हुज़ूर नबी करीम (स०)की इताअत और फ़र्मांबरदारी क़ुरआन से कोई अलग चीज़ नहीं, बल्कि क़ुरआन ही की बेशुमार आयात की तामील है।

अगर आप सुन्नत नबवी(स०) की पैरवी से इनकार करेंगे तो आप ने सिर्फ़ सुन्नत का ही इनकार नहीं किया, बल्कि क़ुरआन की बेशुमार आयात का इनकार कर दिया।

इमाम अबुलहसन आमदी ने इत्तिबा की वज़ाहत करते हुए लिखा हैके किसी के फे़अल के इत्तिबा का ये मानी हैके इस के इस फे़अल को इस तरह किया जाये, जिस तरह वो करता है और इस लिए किया जाये क्युंकि वो करता है। इत्तिबा-ओ-इताअत रसोल(स०) के मुताल्लिक़ जो हुक्म क़ुरआन ने हम को दिया है, उसकी तामील की सिर्फ़ यही सूरत है कि हम हुज़ूर(स०) के अफ़आल को बिलकुल इसी तरह अदा करें, जैसे हुज़ूर(स०) अदा फ़रमाए।