दुनिया की भागदौड़ में हवाई जहाज़ में इंसानी रोबोटों का सफ़र…

हम जिस शहर में रहते थे वहाँ हवाई जहाज़ कभी छत से नहीं गुज़रता था, हाँ इलेक्शन के वक़्त अक्सर हेलीकाप्टर दिख जाते थे. कभी कधार ऐसा भी हुआ कि कोई हवाई जहाज़ कहीं से नज़र आ गया, दूर कहीं आसमान पे उड़ते हुए, आख़िरी ख़ुशी होती थी. बचपन के बाद पढाई के आगे की पढ़ाई में लखनऊ आना हुआ और तब से यहीं हूँ. कभी कभी कोशिश की दिल्ली या दूसरे शहर जाने की लेकिन वो सब कामयाब नहीं हुआ. खैर, पिछले 8 महीनों में मैंने तीन बार हवाई जहाज़ की यात्रा की और एक जो थोडा बहुत डर या यूं कहें कि हिचक जो थी वो जाती रही. हवाई जहाज़ में जो मेरी यात्रा का अनुभव रहा है उसे मैं साझा करने की कोशिश कर रहा हूँ.
मैं एअरपोर्ट के अन्दर जैसे ही दाख़िल होता हूँ हर बार देखता हूँ कि लोगों ने अपना हाव भाव बिलकुल बदल लिया है, एअरपोर्ट के बाहर वो जो भी हो लेकिन अन्दर आके लगता है कि उससे ज़्यादा औरतों की इज़्ज़त करने वाला, मीठी ज़बान बोलने वाला कोई भी नहीं है. आप फ्लाइट की तरफ़ जितना बढिए उतनी ही बनावट बढती जाती है. एयर होस्टेस नाम की जो चीज़ है वो सिर्फ़ चीज़ बनकर रह गयी है, उनका हावभाव और उनकी हर एक चीज़ ये ज़ाहिर करती है कि वो सब जो वो कर रही हैं नक़ली है. हालाँकि वो लोग अच्छा काम करते हैं लेकिन सिर्फ़ काम करते हैं जैसे कंप्यूटर.
दूसरा जो सबसे ख़ास तजुर्बा रहा वो है हवाई जहाज़ के अन्दर की बनावट का, फिल्मों में अक्सर ख़ूबसूरत नज़र आने वाले प्लेन के अन्दर का सारा सिस्टम अच्छा लगता है लेकिन सीटें बहुत कम जगह वाली होती हैं, ये लैपटॉप भी मैं पूरा नहीं खोल पा रहा. ये हाल लेकिन सिर्फ़ इकॉनमी क्लास का है बिज़नस क्लास का नहीं. वो शायद अच्छा होता है लेकिन वो बहुत महंगा है, हालाँकि ये भी कोई सस्ता नहीं है लेकिन वो काफ़ी महंगा है एकदम दुगना.सीटों में जगह का आलम ये है कि वॉल्वो बस से बुरा हाल है. वॉल्वो बस बहुत अच्छे स्पेस पे रहती है.
आम यात्री जो मिलते हैं उनका व्यवहार किसी भी तरह से एयर होस्टेस से अलग नहीं रहता, कुछ तो चौंके रहते हैं कि जैसे वो किसी ऎसी चीज़ में आ गए हैं जहां उन्हें ज़िन्दगी में सिर्फ़ एक बार आने का मौक़ा मिला हो और कुछ तो बस उन चौंके हुए लोगों को ये दिखाने की कोशिश करते हैं कि मैं पहले कई बार प्लेन से यात्रा कर चुका हूँ और इसी वजह से प्लेन के अन्दर या खिड़की से कभी फोटो नहीं खींचते, ऐसा लगता है जैसे उनकी ऐंठन कम हो जायेगी. इस तरह के लोगों से अलग भी कुछ लोग मिलते हैं उन्हें दुनिया से कोई मतलब नहीं होता, वो शायद अक्सर हवाई यात्रा करते हैं और उन्हें अब हवाई यात्रा एक काम की तरह से करनी होती है और वो करते हैं. पहली-दूसरी बार सफ़र करने वाले लोगों में से ही कुछ लोग सेल्फी लेने में यक़ीन रखते हैं और उसमें मज़ा करते हैं लेकिन सहमे रहते हैं कि कहीं कोई कुछ बोल ना दे. अब आते हैं उस तबक़े के ऊपर जो बहुत ही कम तादाद में प्लेन में रहता है कभी कभी नहीं रहता. वो होता है आम इंसान जो सड़कों पर, मोहल्लो में, यूनिवर्सिटी में, बाज़ार में मिल जाता है… अपने ही तरह से रहता है कुछ बदलाव नहीं करता, अगर वो बाज़ार में इंग्लिश में बात करता है तो यहाँ भी इंग्लिश और हिंदी में करता आया है तो हिंदी. अपने अन्दर ज़रा भी बदलाव नहीं करता. ऐसे लोग कम होते हैं लेकिन ये जितने रोबोट प्लेन में होते हैं उनमें से कोई ना कोई उस बन्दे को घूरता है और वो अपना हावभाव बेहतर करने की कोशिश करता है लेकिन वो तो नार्मल है तो वो फिर उसी मोड में चला जाता है.

एक तजुर्बा है ज़बान का, जिन लोगों को इंग्लिश थोड़ी थोड़ी आती है वो यहाँ इंग्लिश ही बोलते हैं भले वो किसी काम की ना हो, अपनी क्षेत्रीय भाषा को भूल कर तुरंत इंग्लिश बोलने लग जाते हैं. मुझे इससे कोई ऐतराज़ नहीं है बस ये हक़ीक़त है.

हाँ एक जो शानदार तजुर्बा हुआ वो हुआ आसमान के ऊपर से आसमान को देखने का. एकदम से बादलों का आना और फिर जाने कहाँ से सूरज की किरणें मूंह पे तेज़ रौशनी करती हुईं, ख़ुदा की क़ुदरत का एक नायाब नमूना ही कह सकते हैं इसे.

(अरग़वान रब्बही)