“दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है”

निदा फ़ाज़ली साहब गुज़र गए लेकिन उनका ये मिसरा ज़िन्दा है और शायद ज़िंदा रहेगा भी. आजकल के समाज में इंसान एक खिलौना ही बनकर रह गया है. वो जो कर रहा है वो ख़ुद नहीं कर रहा दुनिया उससे करवा रही है. जो इंसान करना चाहता है वो इंसान नहीं कर पाता, दुनिया उससे वो सारे काम करवाती है जो वो उससे करवाना चाहती है जबकि इंसान को लगता है कि वो ये सारे काम अपनी मर्ज़ी से कर रहा है. सोचिये ग़ुलामी की सीमा कि जहां इंसानों को ये ही नहीं पता कि वो ग़ुलाम है. मैं किसी नौकरी को बुरा नहीं कह रहा लेकिन जब हम ये देखते हैं कि एक पीएचडी स्कॉलर चपरासी की नौकरी के लिए अप्लाई कर रहा है तो ग़ुलामी नज़र आती है. आजकल के दौर में जबकि एक पीएचडी स्कॉलर से भी कम पढ़े लिखे लोग स्कूल में पढ़ा लेते हैं तो उसे तो आराम से नौकरी मिल जानी थी लेकिन वो ऐसा नहीं कर रहा है वो ऐसा क्यूँ नहीं कर रहा है क्यूंकि उसके आस पड़ोस के लोग, घर के लोग चाहते हैं कि वो सरकारी नौकरी करे और इस सरकारी नौकरी की जुगत ने इस देश के नौजवानों को मजबूर कर दिया है कि वो ऐसा करें. सिर्फ़ नौकरी तक बात सीमित नहीं है,कई बार मैंने देखा है कि लड़के दहेज़ लेने के सख्त ख़िलाफ़ होते हैं लेकिन उनके माँ बाप अपने रसूख की वजह से उसपर दबाव बनाते हैं और दहेज़ की प्रक्रिया होती है. मैं ये नहीं कह रहा कि लड़कों में लालच नहीं होता लेकिन जो मैंने कहा वैसा भी होता है इसके इलावा जब माँ बाप दबाव बना कर काम करवा ही सकते हैं तो क्यूँ नहीं समाज की बुराइयों के ख़िलाफ़ दबाव बनाते हैं. जब कोई लड़की अपनी बात रखने की कोशिश करती है तो घर के लोग उसे चुप करा देते हैं, कम अज़ कम सुन तो सकते ही हैं ना आख़िर आप ही की बेटी है.
बहरहाल, इंसान की ग़ुलामी सिर्फ़ यहीं सीमित नहीं है लोग हर तरह से ग़ुलाम है. हर क़िस्म की ग़ुलामी नज़र आती है समाज में जो राज कर रहे हैं वो भी ग़ुलाम हैं और जो ग़ुलाम हैं वो तो खैर ग़ुलाम ही हैं. एक साहब ने अपने विचार को सही साबित करने के लिए एक फेसबुक स्टेटस शेयर करते हुए लिखा कि देखो ये भी यही कह रहा है लेकिन उन्होंने वो स्टेटस साझा नहीं किये जो उनके मुखालिफ़ विचार रखते थे, इसे क्या कहें पाखण्ड भी कह सकते हैं लेकिन ग़ुलामी ज़्यादा बेहतर लफ्ज़ है. हर जगह वर्चस्व की लड़ाई है, हर एक विचार अपने को दूसरे से बेहतर बताता है जो लोग ये कहते हैं कि धर्म का नाश हो वो अधर्म का नाश हो बर्दाश्त नहीं कर पाते, कुछ इसी का उलट भी है. आखिर हम क्यूँ किसी और विचार को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं, अगर आपको लगता है कि आप सर्वश्रेष्ट हैं तो कोई मना नहीं कर रहा कि आप ऐसा मत सोचो लेकिन दूसरे की विचारधारा अलग हो सकती है, उसको सुनने का और जताने का हक आपको भी है लेकिन शायद समाज एक ऐसी ग़ुलामी के दौर से गुज़र रहा है जहां उसे पता ही नहीं कि वो ग़ुलाम है.

(अरग़वान रब्बही)