नहीं पहुंचती (किसी को) बजुज़ अल्लाह के इज़्न के और जो शख़्स अल्लाह पर ईमान ले आए अल्लाह इसके दिल को हिदायत बख्शा है, और अल्लाह तआला हर चीज़ को ख़ूब जानने वाला है। (सूरा अल तग़ाबुन।११)
ये दुनिया दारुल महन ( कैदखाना) है। मसाइब-ओ-आलाम से किसी को मुफ़िर नहीं। बीमारी, सदमा, तिजारत-ओ-ज़राअत में ख़सारा, किसी अज़ीज़ तरीन मक़सद में इंतिहाई मसाई के बावजूद नाकामी। ये ऐसे हालात हैं, जिनसे कम-ओ-बेश हर शख़्स को वास्ता पड़ता है, लेकिन आलाम-ओ-मसाइब के हुजूम में हर शख़्स का रद्द-ए-अमल यकसाँ नहीं होता।
वो लोग जिनका ख़ुदा की ज़ात पर ईमान नहीं होता, वो अपने आपको इन हालात में एक बेबस तिनका महसूस करते हैं, जैसे हवा के झोंके इधर से उधर फेंक रहे होते हैं। उस वक़्त जिस ज़हनी पस्ती और अख़लाक़ी इन्हितात का ये लोग मुज़ाहिरा करते हैं, उसे देख कर शराफ़त की पेशानी पर पसीना आ जाता है और अँखें फ़र्त नदामत से झुक जाती हैं।
लेकिन जिनका ख़ुदा पर ईमान होता है और ईमान भी ऐसा मुस्तहकम और उस्तिवार कि इसमें ज़रा बराबर लचक नहीं होती, उनकी शान उस वक़्त दीदनी होती है। शेरों के नरग़े में भी वो मुस्कुरा रहे होते हैं, बेरहम तूफ़ानों में भी उनके यक़ीन की शम्मा फुरोज़ां रहती है। वो ये जानते हैं कि वो बे आसरा नहीं हैं, ख़ुदा की ज़ात इनका आसरा है और ये बहुत बड़ा आसरा है।
इसके साथ साथ इनका ये भी ईमान है कि उन के परवरदिगार का कोई काम हिक्मत से ख़ाली नहीं। अगर इसने उन्हें किसी आज़माईश में मुब्तिला कर दिया है तो ये इस का ज़ुल्म या नाइंसाफ़ी नहीं, या अपने फ़र्मांबरदार बंदे से इसका तग़ाफ़ुल और उसकी बेरुख़ी नहीं, बल्कि इसी में उनकी बेहतरी और भलाई है, यही ऐन मस्लेहत है। इस तरह उनके दिल मुज़्तरिब और बेचैन नहीं होते। आज़माईश की इस पुरख़ार वादी को बड़े सब्र-ओ-तहम्मुल और सुकून और वक़ार के साथ तय करते चले जाते हैं।