दोजख से निजात का अशरा

इक्कीसवें रोजे से तीसवें रोजे तक के दस दिन/दस रातें माहे रमजान का आख़िरी अशरा (अंतिम कालखंड) कहलाती है।

चूंकि आख़िरी अशरे में ही लैलतुल क़द्र/शबे-क़द्र (वह सम्माननीय रात की विशिष्ट रात्रि जिसमें अल्लाह तआला की इबादत तमाम रात जागकर किया जाता है तथा जिस रात की बहुत अज्र यानी पुण्य की रात माना जाता है। क्योंकि शबे-कद्र से ही पवित्र कुरआन का नुजूल (या अवतरण) शुरू हुआ था) आती है, इसलिए इसे दोजख से निजात का अशरा (नर्क से मुक्ति का कालखंड) भी कहा जाता है।

शरई तरीके (धार्मिक आचार संहिता के अनुरूप) से रखा गया ‘रोजा’ दोजख (नर्क) से निजात (मुक्ति) दिलाता है।

कुरआने-पाक के सातवीं पारे (अध्याय-7) की सूरह अनआम की चौंसठवीं आयत में पैग़म्बरे-इस्लाम हजरत मोहम्मद(स0) को इरशाद (आदेश) फरमाया- ‘आप कह दीजिए कि अल्लाह तआला ही तुमको उनसे निजात देता है।’ यहाँ यह जानना जरूरी होगा कि ‘आप’ से मुराद हजरत मोहम्मद से है और ‘तुमको’ से यानी दीगर लोगों से है।

मतलब यह हुआ कि लोगों को अल्लाह तआला ही हर रंजो-गम और दोजख़ (नर्क) से निजात (मुक्ति) देता है। सवाल यह उठता है कि अल्लाह तआला तक पहुंचने और निजात (मुक्ति) को पाने का रास्ता और तरीका क्या है? इसका जवाब है कि सब्र (संयम) और सदाकत (सच्चाई) के साथ रखा गया रोजा ही अल्लाह तआला तक पहुंचने और दोजख से निजात पाने का रास्ता और तरीका है।