दो ख़ौफ़नाक चीज़ें

हज़रत जाबिर रज़ी‍० से रिवायत है कि रसूल करीम स०अ०व० ने फ़रमाया अपनी उम्मत के बारे में जिन दो चीज़ों से में बहुत ज़्यादा डरता हूँ, इन में से एक तो ख़ाहिश नफ़्स है, दूसरे (ताख़ीर अमल और नेकियों से ग़फ़लत के ज़रीया) दराज़ ए उम्र की आरज़ू है।

पस नफ़्स की ख़ाहिश (जो हक़ के मुख़ालिफ़ और बातिन के मुवाफ़िक़ होती है) हक़ को कुबूल करने और इस पर अमल करने से रोकता है और जहां तक दराज़ ए उम्र की आरज़ू का ताल्लुक़ है तो वो आख़िरत को भुला देती है! और (याद रखो !) ये दुनिया कूच करके चली जाने वाली है और आख़िरत को कूच करके आने वाली है (यानी ये दुनिया लम्हा ब लम्हा गुज़रती चली जा रही है और आख़िरत लम्हा ब लम्हा तुम्हारी तरफ़ चली आ रही है) नीज़ इन दोनों (यानी दुनिया और आख़िरत) में से हर एक के बेटे हैं (यानी कुछ लोग तो वो हैं जो दुनिया के ताबे-ओ-महकूम और उसकी दोस्ती-ओ-चाहत रखने वाले हैं, गोया वो दुनिया के बेटे हैं और कुछ लोग वो हैं जो आख़िरत के ताबे-ओ-महकूम और इस के दोस्त-ओ-तलबगार हैं, गोया वो आख़िरत के बेटे हैं) लिहाज़ा अगर तुम से ये हो सके कि तुम दुनिया के बेटे ना बनो तो ऐसा ज़रूर करो (यानी ऐसे काम करो और ऐसे रास्ते पर चलो कि दुनिया का दावं तुम पर ना चल सके और तुम उसकी इत्तिबा-ओ-फ़र्मांबरदारी और उस की मुहब्बत-ओ-चाहत के दायरे से निकल कर आख़िरत के ताबे-ओ-महकूम और इसके तलबगार बन जाओ) क्योंकि तुम आज दुनिया में हो जो दार उल-अमल (काम करने की जगह) है, जहां अमल का हिसाब नहीं लिया जाता (पस इस मौके को ग़नीमत जानो और अजल आने से पहले अमल कर लो) जबकि तुम कल आख़िरत के घिर में जाओगे तो वहां अमल करने का कोई मौक़ा नहीं मिलेगा (बल्कि वहां सिर्फ़ मुहासिबा होगा)। (बहिक़ी)