दख़ूल-ए-जन्नत का सबब हुस्न-ए-अमल है

और हज़रत अबदुल्लाह इब्न शद्दाद कहते हैं, बनी उज़रा के क़बीला के कुछ लोग कि जिनकी तादाद तीन थी, नबी करीम स०अ०व० की ख़िदमत में हाज़िर हुए और इस्लाम कुबूल किया (और फिर वो लोग हुसूल दीन की ख़ातिर और ख़ुदा की राह में रियाज़त-ओ-मुजाहिदा की नीयत से हुज़ूर स०अ०व० के पास ठहर गए, उनकी माली हालत चूँकि बहुत ख़स्ता थी और वो ज़रूरीयात-ए-ज़िंदगी की कफ़ालत ख़ुद करने पर क़ादिर नहीं थे लिहाज़ा) रसूल करीम स०अ०व० ने फ़रमाया कि कौन है जो उन लोगों की ख़बरगीरी के सिलसिले में मुझे बेफ़िक्र कर दे?

यानी आप स०अ०व‍०) ने सहाबा ( रज़ि०) से पूछा कि क्या तुम में से कोई शख़्स ऐसा है जो उन लोगों की ज़रूरियात ए ज़िंदगी की कफ़ालत और ख़बरगीरी-ओ-दिलदारी की ज़िम्मेदारी बर्दाश्त कर सके, ताकि मुझे उनका ख़बरगिरां बनने की ज़रूरत ना रहे और मैं उनकी तरफ़ से बेफ़िक्र हो जाऊं? हज़रत तलहा ( रज़ि०) ने अर्ज़ किया कि मैं इस ज़िम्मेदारी को क़ुबूल करता हूँ!

चुनांचे वो तीनों हज़रत तलहा रज़ि० के पास रहने लगे ! (कुछ दिनों के बाद) जब नबी करीम स०अ०व० ने किसी तरफ़ एक लश्कर भेजा तो इस (लश्कर) के साथ इन तीनों में से भी एक शख़्स गया और मैदान-ए-जंग में (दुश्मनों से लड़ता हुआ) शहीद हो गया, इसके बाद हुज़ूर स०अ०व० ने एक और लश्कर भेजा , इस के साथ दूसरा शख़्स गया और वो भी शहीद हो गया और फिर तीसरा शख़्स अपने बिस्तर पर अल्लाह को प्यारा हो गया (और ये शख़्स अगरचे मैदान-ए-जंग में शहीद होने का मौक़ा नहीं पा सका लेकिन मराबित ज़रूर था , और मैदान-ए-जंग में दुश्मनों के साथ जिहाद करने की नीयत भी रखता था)

रावी कहते हैं कि हज़रत तलहा रज़ि० ने बयान किया कि (इन तीनों में से दो की शहादत और एक की क़ुदरती मौत के बाद एक दिन ख़ाब में) मैंने देखा कि वो तीनों जन्नत में हैं, नीज़ मैंने देखा कि जो शख़्स अपने बिस्तर पर अल्लाह को प्यारा हुआ था वो तो सब से आगे है।