नुमाइंदा ख़ुसूसी- आज़ादी से क़ब्ल बर्र-ए-सग़ीर में दो एसी अज़ीम शख्सियतें उठ खड़ी हुईं जिन में से एक ने अपने पाकीज़ा कलाम और दूसरे ने असर अंगेज़ ख़िताबत के ज़रीया ख़ाब-ए-ग़फ़लत में पड़े हुए मुस्लमानों को जगाने की भरपूर कोशिश की और मुस्लमानों को ये बताया कि देखो तुम ख़ुद को हरगिज़ कैसी से कमतर ना समझो क्यों कि तुम्हारे पास अल्लाह अज़्ज़-ओ-जल की अपने रसूल ई पर नाज़िल करदा किताब हिक्मत क़ुरआन मजीद और नबी आख़िर-ऊज़-ज़मा स०अ०व० की सुन्नत मुबारका है और दीन-ओ-दुनिया में कामयाबी-ओ-कामरानी के लिये उन के इलावा किसी और चीज़ की ज़रूरत दरकार नहीं ।
इन दो शख्सियतों में से एक शायर-ए-मशरिक़ अल्लामा इक़बाल और उन के ही फ़ल्सफ़ियाना कलाम मर्द मोमिन-ओ-मर्द मुजाहिद क़ाइद मिल्लत नवाब बहादुर यार जंग हैं । शायर-ए-मशरिक़ अल्लामा इक़बाल ने जब कहा : की मुहम्मद से वफ़ा तू ने तो हम तेरे हैं ये जहां चीज़ है क्या लौह-ओ-क़लम तेरे हैं तो बहादुर यार जंग ने मुस्लमानों को आवाज़ दे कर कहा अगर दीन-ओ-दुनिया में क़दर-ओ-मंजिलत , इक़बाल-ओ-सरबुलन्दी चाहते हो तो दामन मुस्तफ़ा में पनाह ले लो ।
वफ़ा करो तो अपने प्यारे नबीऐ से करो । आप की सीरत को अपनी ज़िंदगी का ओढ़ना बिछौना बनालो तब हवादिस-ए-ज़माना तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते । जहां तक बहादुर यार जंग की बात है आप के बारे में यही कहा जा सकता है कि आप की शहादत के बाद से अब तक मुस्लमानों को एसा क़ाइद ना मिल सका । क़ाइद मिल्लत की शख्सियत और मिल्लत इस्लामीया के लिये उन की ख़िदमात-ओ-तड़प की मिसाल पेश नहीं की जा सकती । हाँ इस क़ाइद बेमिसाल-ओ-बेनज़ीर के लिये ही ये कहा जा सकता है ।
निगाह बुलंद सुख़न दिलनवाज़ जां पुरसोज़
यही है रख़्त सफ़रमेर कारवां के लिये
क़ारईन आज हमारी नौजवान नस्ल इस अज़ीम क़ाइद मिल्लत और आप के कारनामों से वाक़िफ़ नहीं है । इस बात की ज़रूरत है कि नौजवान नस्ल को क़ाइद मिल्लत की हयात और कारनामों से वाक़िफ़ करवाया जाय । उन्हें ये बताया जाय कि 5 फरवरी 1905 को हज़रत नसीब यार जंग के घर में आंखें खोलने वाले बहादुर ख़ां की विलादत के 7 यौम बाद ही उन की वालिदा माजिदा अल्लाह को प्यारी होगई थीं । नानी की आग़ोश में पले बड़े मुहम्मद बहादुर ख़ां के वालिद मुहतरम ने इस वक़्त दाई अजल को लब्बैक कहा जब बुलंद किरदार के हामिल नूर नज़र की उम्र 18 साल को पहुंची । उस सानिहा के वक़्त आप मीट्रिक में ज़ेर तालाम थे । क़ाइद मिल्लत ने क़ुरआन-ओ-हदीस की तालाम पर ख़ुसूसी तवज्जा दी ।
साथ ही शायर-ए-मशरिक़ अल्लामा इक़बाल को भी ख़ूब पढ़ा । क़ुरआन से आप की शग़फ़ का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि आप अपने घर बेगम बाज़ार में बड़ी पाबंदी से दरस क़ुरआन दिया करते थे । आप का ये मामूल था फ़ज्र की नमाज़ के बाद दरस क़ुरआन देते , नाशते से फ़ारिग़ हो कर मजलिस और क़ौमी मसाइल दोपहर एक बजे तक अंजाम देते । नमाज़ ज़ुहर के बाद आराम करते , साढे़ तीन बजे से आम लोगों से मुलाक़ात करते , हर एक से फ़र्दन फ़र्दन ख़ंदापेशानी से मुलाक़ात करते । हर हफ़्ता बाद मग़रिब तारीख इस्लाम का दरस देते । 1927 में जब कि मुस्लमान इंतिहाई नाज़ुक दूर से गुज़र रहे थे हैदराबाद दक्कन में मजलिस इत्तिहादअलमुस्लिमीन का क़ियाम अमल में आया । पहले सदर का कोई ओहदा ना था बल्कि मोतमदी सब से बड़ा ओहदा समझा जाता था । नवाब बहादुर यार जंग मुस्लमानों की इस नुमाइंदा और सब से बड़ी तंज़ीम के शरीक मोतमद बनाए गए ।
1939 -में मजलिस के दस्तूर में तरमीम की गई और सदारत का ओहदा क़ायम हुआ । 1940 मैं क़ाइद मिल्लत इस के सदर बने और अपनी शहादत यानी 25 जून 1944 तक इसी बावक़ार और इंतिहाई ज़िम्मेदार ओहदा पर फ़ाइज़ रहे । आप ने इस तंज़ीम के ज़रीया मज़हबी , समाजी ,मआशी और सयासी महाज़ पर मुस्लमानों को तरक़्क़ी की जानिब राग़िब करने का बीड़ा उठाया । चुनांचे सब से पहले क़ाइद मिल्लत ने मुस्लमानों के लिये दारुल मोताला , वरज़िश गाहैं और छोटे पैमाने की सनअतें क़ायम की ताकि मुस्लमानों में इस वक़्त सरकारी मुलाज़मत को तरजीह देने और तिजारत सनअत-ओ-हिर्फ़त से बेज़ारी का जो रुजहान था उसे बदला जा सके । क़ाइद मिल्लत ने बहैसियत सदर मजलिस इत्तिहाद उलमुस्लिमीन सिर्फ मुस्लमानों को ख़ाब-ए-ग़फ़लत से बेदार करने का फ़रीज़ा ही अंजाम नहीं दिया बल्कि दीन इस्लाम की तब्लीग़-ओ-तरवीज में भी अपनी सारी तवानाईयां सिर्फ़ करदें जिस का नतीजा ये निकला कि आप के दस्त हक़ पर 20 हज़ार से ज़ाइद गैर मुस्लिमों ने इस्लाम क़बूल किया ।
कम उमरी में ही अल्लाह ताला ने क़ाइद मिल्लत को बेशुमार नेअमतों से नवाज़ा था । 1931 मैं हज बीत अल्लाह और रोज़ा रसूल स०अ०व०) पर हाज़िरी के बाद आप ने मुस्लिम ममालिक बशमोल फ़लस्तीन , शाम , मिस्र , तुर्की , इरान , वस्त एशिया के ममालिक और अफ़्ग़ानिस्तान का दौरा किया । इसी लिये हज़रत ख़्वाजा हसन नज़ामी ने आप को इबन बतूता हिंद के लक़ब से याद किया था । आप को हमेशा इस बात की फ़िक्र दामनगीर रहती थी कि हैदराबाद दक्कन और मुत्तहदा हिंदूस्तान में मिल्लत इस्लामीया का सूरज ग़ुरूब ना हो । उन्हें ये भी हरगिज़ गवारा ना था कि दक्कन में मुस्लमानों की 700 साला दौर हुक्मरानी का ख़ातमा हो ।
उन्हों ने आख़िरी वक़्त तक इस ज़िमन में हत्तल मक़दूर कोशिश की लेकिन वही हो कर रहा जो अल्लाह ताला को मंज़ूर था । उन्हों ने मुस्लमानों को हम दक्कन के बादशाह हैं जैसा नारा दिया था लेकिन इक़तिदार के ऐवानों में बैठे चापलूस-ओ-साज़िशी टोले ने हक़ की इस आवाज़ को हमेशा हमेशा के लिये ख़त्म करने की साज़िशें शुरू करदीं । इस्लाम दुश्मन अंग्रेज़ों और यहूदीयों के इन एजैंटों ने इस साज़िश को कामयाब बनाने के लिये जान तोड़ कोशिश की क्यों कि उन्हें क़ाइद मिल्लत की मक़बूलियत से अपना मौक़िफ़ कमज़ोर होने का ख़ौफ़ होचुका था । बिलआख़िर 25 जून 1944 को हुक़्क़ा में ज़हर दे कर उन्हें शहीद कर दिया गया ।
नज़ीर उद्दीन अहमद और सय्यद हुसैन साबिक़ (भूतपूर्व) डायरैक्टर एस्टेट ऑडिट डिपार्टमैंट ने अपनी तसानीफ़ में इस का बेहतर अंदाज़ में तज़किरा किया है । सवानिह क़ाइद मिल्लत बहादुर यार जंग के मुताबिक़ 25 जून 1944 को बरोज़ इतवार क़ाइद मिल्लत ने अपने एक दोस्त हाशिम अली ख़ां जज हाईकोर्ट की क़ियामगाह वाक़ै बंजारा हिलज़ पर तशरीफ़ ले जाने से क़ब्ल हसब-ए-मामूल अपनी कोठी पर दरस इक़बाल दिया और नमाज़ मग़रिब की अदाएगी के बाद बंजारा हिलज़ तशरीफ़ ले गए जहां एक यहूदन डाक्टर मिस मक़बूल ने दीगर (दूसरे) मेहमानों की मौजूदगी में आप को हुक़्क़ापेश किया और पहले ही कश में आप की रूह क़फ़स अंसरी से परवाज़ कर गई ।
क़ारईन क़ाइद मिल्लत हमेशा इशक़ रसूल में डूबे रहा करते थे । उन्हें हैदराबाद में बड़े पैमाना पर जलसा रहमतु लिल आलमीन के आग़ाज़ का एज़ाज़ हासिल है । आप को हज़ारों फ़र्र ज़िंदाँने तौहीद की मौजूदगी में मुशीराबाद पर के वसीअ-ओ-अरीज़ हज़ीरा में सपुर्द लिहद किया गया । क़ारईन क़ाइद मिल्लत हज़रत बहादुर यार जंग की ख़ाहिशात-ओ-मक़ासिद आज भी आप के मक़बरा पर नसब इस तख़्ती से ज़ाहिर होती हैं जिस पर चांद तारा का निशान , तलवार-ओ-क़लम , इस्म अल्लाह कुंदा है ।
बहरहाल ज़रूरत इस बात की है कि तारीख की इस अज़ीम हस्ती के बारे में आलमी सतह पर समीनार , इजलास और लेकचर मुनाक़िद करते हुए नौजवान नस्ल को उन के बारे में वाक़िफ़ करवाया जाय । काश हम गुफ़तार से ज़्यादा किरदार पर तवज्जा दें तो कितना बेहतर होता ।