नदामत तौबा है, अल्लाह की रहमत से मायूस ना हों

इंसान ख़ता का पुतला है, ब तकाज़ाए ब शरियत गुनाह का मुर्तक़िब होता है। मगर जब एहसास होता है तो दिल में नदामत होती है कि मुझे ऐसा नहीं करना चाहीए था, इसी नदामत का दूसरा नाम तौबा है। हुज़ूर अकरम स०अ०व० का इरशाद है कि नदामत तौबा है। इसीलिए बंदा जब गुनाह कर रहा होता है तो अल्लाह तआला उस वक़्त भी ग़ज़बनाक नहीं होता। चूँकि वो हलीम है, इसलिए ग़लती पर पछताने का मौक़ा देता है।

बनीइसराईल के एक बादशाह के सामने किसी आबिद का तज़किरा हुआ। बादशाह ने उसे बुला भेजा और मिन्नत समाजत करके उसे अपने महल में रखने की कोशिश की। आबिद ने कहा बादशाह सलामत! बात तो बहुत अच्छी है, मगर ये बताईए कि अगर आप मुझे किसी दिन अपनी बांदी से ज़िना करता देख लें तो क्या होगा?। बादशाह ये सुन कर ग़ज़बनाक हो गया और कहने लगा ऐ बदकार! तू मेरे महल में इतनी बड़ी जुर्रत कर सकता है?।

आबिद ने कहा बादशाह सलामत! नाराज़ ना हों, मेरा रब कितना करीम है कि अगर मुझे दिन में सत्तर मर्तबा भी गुनाह करता देखे तो भी मुझ पर ग़ज़बनाक नहीं होता, ना ही अपने दरवाज़े से धकेलता है, ना रिज़्क से महरूम करता है, तो मै उसका दर किस तरह छोड़ों और आपके दरवाज़े पर किस तरह आऊं?, जबकि आप तो गुनाह करने से पहले ही मुझ पर ग़ज़बनाक हो रहे हैं?।

अगर आप जुर्म करता देख लें तो मेरा क्या हश्र करेंगे?। ये कह कर वो आबिद वापस चला गया।

हज़रत इब्न अब्बास रज़ी० से रिवायत है कि हुज़ूर नबी करीम स०अ०व० के चचा हज़रत हमज़ा रज़ी० के क़ातिल वहशी ने मक्का मुकर्रमा से हुज़ूर अकरम स०व०अ० की ख़िदमत में ख़त भेजा कि मैं इस्लाम क़ुबूल करना चाहता हूँ, मगर मेरे लिए क़ुरआन मजीद की ये आयत रुकावट बनी हुई।

तर्जुमा: और जो लोग नहीं पुकारते अल्लाह तआला के साथ दूसरे अल्लाह को और ना ख़ून करते हैं ऐसी जान का, जो अल्लाह ने मना कर दी है मगर हक़ के साथ और ना बदकारी करते हैं और जो करे ये काम वो जा पड़ता है गुनाह में (सूरतुल फ़ुरकान।६८) इसके बाद वहशी ने लिखा मैंने शिर्क, क़त्ल और ज़िना तीनों काम किए हैं, क्या मेरे लिए तौबा है?।

इस पर ये आयत नाज़िल हुई लेकिन जिसने तौबा की और ईमान लाया और अच्छे अमल किए हैं कि बदल देगा अल्लाह उनकी बुराईयां नेकियों के साथ।

हुज़ूर अकरम स०अ०व० ने जब मज़कूरा आयत लिख कर वहशी को भेजी तो इसने जवाब में कहा कि इस आयत में नेक अमल करना शर्त है, पता नहीं मैं कर सकूं या ना कर सकूं?।

जिस पर ये आयत नाज़िल हुई बेशक अल्लाह तआला नहीं माफ़ फ़रमाता ये कि इसके साथ शिर्क किया जाये और इसके अलावा जिसके लिए चाहे माफ़ी अता फ़रमाता है। (सूरतुन्निसा ११६)

हुज़ूर नबी करीम स०अ०व० ने ये आयत लिख कर भेजी तो वहशी ने जवाब दिया कि इस आयत में मग़फ़िरत मशरूत है, क्या ख़बर मेरी मग़फ़िरत चाहेंगे या नहीं?। इस पर आयत नाज़िल हुई कि कह दीजिए ए मेरे बंदों ! जिन्होंने अपने नफ़्सों पर ज़्यादती की ना मायूस हों अल्लाह की रहमत से, बेशक अल्लाह तआला माफ़ फ़रमा देगा तमाम गुनाह, बेशक वो मग़फ़िरत करने वाला और रहम करने वाला है।

(सूरतुल ज़ुमुर।५३)

हुज़ूर नबी करीम स०अ०व० ने ये आयत लिख कर भेजी, जिस में मग़फ़िरत के लिए कोई पेशगी शर्त का तज़किरा नहीं था तो वहशी ने मदीना तैय्यबा हाज़िर होकर इस्लाम क़ुबूल कर लिया। इससे मालूम हुआ कि बंदे को अल्लाह तआला की रहमत से हरगिज़ हरगिज़ मायूस नहीं होना चाहीए, दीन इस्लाम ने मायूसी को कुफ्र कहा है।

इरशाद बारी तआला है कि बेशक अल्लाह की रहमत से काफ़िर नाउम्मीद हैं। लिहाज़ा अगर किसी बंदे ने बार बार ज़िना का इर्तिकाब भी किया है तो भी इसके लिए तौबा का दरवाज़ा खुला हुआ है, वो जब चाहे अपने रूठे हुए रब को मना सकता है।

हुज़ूर अकरम स०अ०व० ने एक हदीस ए पाक में इरशाद फ़रमाया है कि जो शख़्स मौत के वक़्त सांस उखड़ने से पहले तौबा कर ले तो भी अल्लाह तआला उसकी तौबा क़ुबूल फ़रमा लेता है। इरशाद बारी तआला है कि वो है कि तौबा क़ुबूल करता है अपने बंदों की और उनके गुनाहों से दरगुज़र करता है। (सूरतुश्शूरा।२५)

हज़रत सईद बिन अल हसीब रह० से पूछा गया कि बेशक वो रुजू करने वालों की ख़ता माफ़ फ़र्मा देता है से क्या मुराद है?। आपने फ़रमाया जो बंदा गुनाह करता है फिर तौबा कर लेता है। हज़रत हसन बस्री रहमतुल्लाह अलैहि से पूछा गया ये सिलसिला कब तक रहेगा?।

आपने फ़रमाया जब तक सूरज मग़रिब से तलूअ नहीं हो जाता यानी उस वक़्त तक कोई भी बदकार शख़्स अगर तौबा कर लेगा तो उस की तौबा क़ुबूल हो जाएगी।

हज़रत अली रज़ीयल्लहू तआला अन्हू फ़रमाते हैं कि मुझे सैय्यदना सिद्दीक़ अकबर रज़ी० ने ये हदीस सुनाई कि जब बंदा कोई गुनाह करता है, फिर अच्छी तरह व़ुज़ू‍ करता है, दो रकात नमाज़ पढ़ लेता है और अल्लाह तआला से बख़शिश मांगता है तो अल्लाह तआला उसे माफ़ फ़रमा देता है।

फिर हुज़ूर अकरम स०अ‍‍०व० ने ये आयत तिलावत फ़रमाई जो बुरे काम करे या अपनी जान पर ज़ुल्म करे, फिर अल्लाह तआला से माफ़ी मांगे तो अल्लाह तआला को मग़फ़िरत फ़रमाने वाला और रहम करने वाला पाएगा। (सूरतुन्निसा ११०)

बाअज़ ताबईन से मनक़ूल है कि एक गुनहगार गुनाह करता है, फिर इस पर नादिम होकर इस्तगफ़ार करता रहता है, हत्ता (यहां तक की) कि अल्लाह तआला उसकी मग़फ़िरत करके उसे जन्नत में दाख़िल फ़र्मा देता है, तो शैतान कहता है ए काश! में उसे गुनाह में मुबतला ही ना करता।

(मौलाना ज़ुल्फ़क़ार अहमद नक़्शबंदी)