हुज़ूर नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने शहवत का बेहतरीन ईलाज शादी करना बताया है। हज़रत अबदुल्लाह बिन मसऊद रज़ीयल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया: ए नौजवानों की जमाअत! जो तुम में से निकाह की ताक़त रखता है वो निकाह करे, क्योंकि निकाह करना नज़र को छुपाता है और शर्मगाह को महफ़ूज़ करता है (मुत्तफ़िक़ अलैहि) इस हदीस ए पाक से सूरत-ए-हाल इतनी वाज़िह हो गई कि मज़ीद कलाम की गुंजाइश ही नहीं रही।
अगर किसी शख़्स के लिए शादी करने में शरई रुकावटें हैं तो उसको चाहीए कि सब्र-ओ-ज़बत से काम ले और अपनी पाक दामनी की हिफ़ाज़त करे। इरशाद ए बारी तआला है और चाहीए कि अपने आप को रोके रखें वो लोग जिनको नहीं मिलता निकाह का सामान, यहां तक कि अल्लाह उनको मक़दूर दे अपने फ़ज़ल से। (सूरा अल-नूर।३३)
उमूमी तजुर्बा है कि पाक दामनी की ज़िंदगी गुज़ारने वाले लोगों के लिए अल्लाह तआला जल्दी निकाह का रास्ता हमवार कर देता है। हज़रत अबूहुरैरा रज़ीयल्लाहु तआला अन्हु से रिवायत है कि हुज़ूर नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया तीन अश्ख़ास की मदद अल्लाह तआला पर लाज़िम है, एक मकातिब (ग़ुलाम) जो पैसे अदा करने का इरादा रखता हो, दूसरा निकाह करने वाला जो पाकदामन रहना चाहता हो और तीसरा अल्लाह तआला की राह में जिहाद करने वाला (मिशकात, किताब अलं निकाह) गौरतलब बात ये है कि जिस शख़्स की मदद अल्लाह तआला फ़रमाए, उसे मंज़िल तक पहुंचने से कौन रोक सकता है।
क़ुरआन मजीद का मुताला करने से ये बात वाज़िह हो जाती है कि शहवत पर क़ाबू रखने के लिए चार काम बहुत मुफ़ीद हैं:
(१) बदनज़री से परहेज़। अल्लाह तआला का इरशाद है कि मोमिनों से कह दीजिए कि वो अपनी निगाहें नीची रखें और अपनी शर्मगाहों की हिफ़ाज़त करें (सूरा अलनूर: ३०) बदनज़री से इंसान के अंदर शहवत की आग भड़क उठती है।
जिस तरह बटन दबाने से मशीन चल पड़ती है, इसी तरह ग़ैर महरम पर नज़र पड़ने से इंसान के जिस्म में शहवत के आज़ा मुतहर्रिक हो जाते हैं। जो लोग पाकदामनी की ज़िंदगी गुज़ारना चाहते हों उनके लिए बदनज़री से बचना लाज़िमी है। नज़र पाकीज़ा हो तो शहवत की आग भड़कने से रोकना मुम्किन है।
इसीलिए क़ुरआन मजीद में निगाहें नीची रखने का हुक्म है और साथ ही शर्मगाह की हिफ़ाज़त का हुक्म है, इससे साबित हुआ कि ये दोनों चीज़ें लाज़िम-ओ-मल्ज़ूम हैं।
(२) फ़ासिक़ीन की सोहबत से परहेज़। शहवत को क़ाबू में रखने का दूसरा तरीक़ा ये है कि इंसान फ़ासिक़ों की सोहबत से परहेज़ करे। फ़ासिक़-ओ-फ़ाजिर अफ़राद का कलाम बाअज़ औक़ात इंसान को सांप की तरह डस लेता है और रुहानी वाकेय् हो जाती है।
इरशाद ए बारी तआला है कि ना रोके इससे आपको वो शख़्स जो इसका यक़ीन नहीं रखता और अपनी ख़ाहिशात के पीछे लगा हुआ है, पस तो गिर पड़ेगा। (सूरा ताहा।१६)
हज़रत इमाम ग़ज़ाली रहमतुल्लाह अलैहि ने लिखा है कि यार-ए-बदमार बद यानी बुरा दोस्त साँप से भी ज़्यादा बुरा होता है, इसलिए कि साँप के डसने से जिस्मानी मौत वाकेय् होती है, जबकि यार बद के कलाम से रुहानी मौत वाकेय् हो जाती है। मज़ीद बुरा यार बद शैतान से भी ज़्यादा बुरा होता है, इसलिए कि शैतान तो इंसान के दिमाग़ में फ़क़त गुनाह का ख़्याल डालता है, जब यार बद हाथ पकड़कर इंसान से गुनाह करवाता है। सैकड़ों नौजवान ऐसे मिलेंगे, जो पाकीज़ा ज़िंदगी गुज़ार रहे थे, मगर किसी फ़ासिक़ दोस्त की वजह से ज़िना के मुर्तक़िब हुए।
(३) नमाज़ के ज़रीये मदद। इरशाद ए बारी तआला है कि और मदद चाहो सब्र के साथ और नमाज़ के साथ (सूरा अलबक़रा।४५) इंसान को चाहीए कि शहवत को सब्र के ज़रीये रोके रखे और जब देखे कि तूफ़ान ज़्यादा उठ खड़ा हुआ है तो नमाज़ पढ़ कर अल्लाह तआला से मदद तलब करे, अल्लाह तआला दिल में ठंडक पैदा फ़रमा देगा। ऐसे वक़्त में दो रकात सलातुल हाजत पढ़ कर अल्लाह तआला से दुआ करे, हैरानकुन नताइज बरामद होंगे।
इरशाद बारी तआला है बेशक नमाज़ फ़ह्हाशी और बुरे कामों से रोकती है। (सूरा अल अनकबूत।४५)
ग़ैर शादीशुदा शख़्स के लिए इशा की नमाज़ के बाद या नमाज़ तहज्जुद के वक़्त दो रकात नमाज़ पढ़ कर अल्लाह तआला से शहवत पर कंट्रोल होने की दुआ माँगना तीर बहदफ़ ईलाज है।
शहवत के उठते तूफ़ान रुक जाते हैं, सैलाब के आगे बांध बंध जाता है और इफ़्फ़त-ओ-पाकदामनी की ज़िंदगी गुज़ारना आसान हो जाता है।
(४) ज़िक्र ए इलाहि की कसरत। मशाइखे किराम फ़रमाते हैं कि फ़िक्र की गंदगी ज़िक्र से दूर होती है। दिमाग़ में हर वक्त शैतानी, शहवानी और नफ़सानी ख़्यालात की भरमार को फ़िक्र की गंदगी कहते हैं। बहुत से नौजवान अपने ख़्यालात की दुनिया में ख़्याली महबूबा से मिलाप का तसव्वुर करके शहवत की लज़्ज़त हासिल करते हैं, यहां तक कि उठते बैठते और चलते फिरते यही ख़्यालात उनके दिमाग़ में छाए रहते हैं।
अगर इस मर्ज़ का ईलाज ना किया जाए तो मुआमला इतना बिगड़ जाता है कि हमावक़त इन ख़्यालात की सीरीज़ जारी रहती है। ऐसी सूरत में ज़िक्र ए इलाही की कसरत, इंसानी फ़िक्र को गंदगी से पाक कर देती है, तजुर्बा शर्त है।
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हज़रत इमाम ग़ज़ाली रहमतुल्लाह अलैहि ने लिखा है कि यार-ए-बद मार बद यानी बुरा दोस्त साँप से भी ज़्यादा बुरा होता है, इसलिए कि साँप के डसने से जिस्मानी मौत वाकेय् होती है, जब कि यार बद के कलाम से रुहानी मौत वाकेय् हो जाती है। मज़ीद बरआं यार बद ( खराब दोस्त) शैतान से भी ज़्यादा बुरा होता है, इसलिए कि शैतान तो इंसान के दिमाग़ में फ़क़त गुनाह का ख़्याल डालता है, जबकि यार बद ( बुरा दोस्त) हाथ पकड़कर इंसान से गुनाह करवाता है। सैकड़ों नौजवान ऐसे मिलेंगे, जो पाकीज़ा ज़िंदगी गुज़ार रहे थे, मगर किसी फ़ासिक़ दोस्त की वजह से ज़ना के मुर्तक़िब हुए।
——–(मौलाना ज़ुल्फ़क़ार अहमद नक़्शबंदी )