नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से मोहब्बत-अहमियत और तकाजे

एक मुसलमान और मोमिन के लिए अपनी जात की मार्फत व मोहब्बत इतनी जरूरी नहीं जितनी कि मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से मोहब्बत ईमान का जुज है और हुब्बे नबवी के बगैर दावा-ए-ईमान भी मोतबर नहीं हो सकता।

कुरआने करीम की कई आयतों में ईमान बिल्लाह के साथ ईमान बिल रिसालत को तकमीले ईमान की शर्त के तौर पर बयान फरमाया गया है। इसलिए अल्लाह का इरशाद है-‘‘ ईमान लाओ अल्लाह पर और उसके रसूल पर और उस नूर (कुरआन) पर जो हमने नाजिल किया।’’ दूसरी आयत में इरशाद है-‘‘ (ऐ लोगो !) तुम अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान ले आओ और उस (के दीन) की मदद करो और उसकी ताजीम करो। (अलफतह-9)

इन आयात से जहां ईमान बिल रसूल की अहमियत वाजेह होती है वहीं यह बात भी साबित होती है कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से ताल्लुक व मोहब्बत के बगैर ईमान की दौलत का हुसूल बेबुनियाद है। इसलिए ईमान बिल रसूल का तकाजा है कि मोहब्बत करने वाला अपने महबूब के हर हुक्म के आगे अपनी जबीने अकीदत को इस तरह खम कर दे कि अक्ल व फिक्र व फलसफे का उसमें कोई दखल न हो। हुब्बे नबवी ईमान की बुनियाद भी है और इसकी मेराजे कमाल भी। इसलिए अल्लाह तआला पर सही ईमान का मेयार यही है कि नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के हर कौल व अमल को बिला चूं चरा उसी तरह मान लिया जाए जिस तरह आप ने फरमाया या अमली नमूना पेश फरमाया और आप से ऐसी मोहब्बत की जाए जो तबअन, शरअन और अक्लन मतलूब व पसंदीदा हो। नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से मोहब्बत के मायनी और उसकी हकीकत के सिलसिले में अहले इल्म हजरात ने मुख्तलिफ बाते इरशाद फरमाई हैं जिनकी हकीकत तकरीबन एक ही है।

हजरत सुफियान नूरी (रह0) फरमाते हैं कि रसूल की इत्तबा का नाम मोहब्बत है। बाज ने कहा कि हुब्बे नबवी उम्मती के उस एतकाद को कहते हैं जिसके तहत वह इजरा-ए-सुन्नत का आदी हो जाए। हर शोबा-ए-जिंदगी में सुन्नत की पैरवी करने लगे और मुखालिफते सुन्नत से खौफजदा रहे। कुछ लोगों की राय है कि जिक्रे महबूब के दवाम का नाम मोहब्बत है यानी हर दम आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की सुन्नत पर अमल पैरा रहे और बकसरत आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर दरूद शरीफ भेजता रहे। बाज का मानना है कि महबूब पर जांनिसारी मोहब्बत का दूसरा नाम है। बाज हजरात का ख्याल है कि मोहब्बते महबूब के शौक को कहते हैं यानी जिस मोहब्बत के जरिए महबूब का कुर्ब और विसाल नसीब हो वह हकीकी मोहब्बत है। चंद अहले मोहब्बत ने फरमाया कि दिल को रब की मर्जी पर छोड़ देना यानी जो बात उसको पसंद हो वह भी उसको पसंद करे और जो बात महबूब को नापसंद हो वह भी उसको नापसंद समझे। बाज लोगों का कहना है कि मवाफिकत की जहत पर दिल के मीलान का नाम मोहब्बत है। (बहवाला इश्के रसूल-63)

मजकूरा बाला मायनी-ए-मोहब्बत में जो बात कदरे मुश्तरिक है वह यह कि दिल उस तरफ मायल हो जो फितरते इंसानी के मुताबिक हो और दिल को उसके इदराक से लज्जत हासिल हो। आमतौर पर मोहब्बत की बुनियाद चार चीजें हुआ करती है- जमाल, कमाल, नवाल (एहसान) और कराबत। कभी किसी के जमाल जहां आरा हुस्न और खूबसूरती की बिना पर उससे मोहब्बत हो जाती है जैसा कि हुस्ने यूसुफ पर जुलेखा और मिस्र की औरतें आशिक हो गई थी और इंसान तो इंसान बाज हैवान भी जमाल पर आशिक हो जाते हैं जैसे कुछ परिंदे चांद के हुस्न पर आशिक हैं और परवाने शमा की रौशनी पर आशिक हैं यहां तक कि जान दे देते हैं मगर उफ तक नहीं करते।

कभी किसी मे कमाल व काबलियत हो तो उससे मोहब्बत हो जाती है जैसा कि आज हमें औलिया, अकाबिरे उम्मत व उलेमा-ए-मिल्लत से जो मोहब्बत है वह महज उसके इल्मी, अखलाकी, अमली और दीनी कमाल की वजह से है। इसके इलावा कोई दूसरी वजह या दुनियावी गरज उनसे वाबस्ता नहीं है। कभी किसी के एहसान करने की वजह से उससे मोहब्बत हो जाती है। एहसान एक ऐसी चीज है जिस की बिना पर इंसान ही नहीं बल्कि जान लेवा जानवर भी अपने मोहसिन के ताबे हो जाया करते हैं। इनके इलावा कराबत व रिश्तेदारी की वजह से मोहब्बत होना एक बदीही बात है। गरज कि इन चारो असबाब में से कोई एक सबब भी मौजूद हो तो मोहब्बत के लिए काफी है।

मजकूरा बाला असबाब की रौशनी में जाते नबवी का जायजा लें तो यह बात वाजेह हो जाएगी कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की जात इन तमाम सिफात व कैफियत की जामे है क्योंकि आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) में यह चीजें आला दर्जे में मौजूद थी जो मूजिब मोहब्बत है। अल्लाह तआला ने आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का अजमलुल खलायक पैदा किया। हर किस्म के मकारिम से संवारा। जाहिरी हुस्न व जमाल और हुस्ने अखलाक के अलावा बातिनी खुसूसियात व कमालात का सरचश्मा बनाया। इसलिए शमायल की किताबो में आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के हुस्न व जमाल के मुताल्लिक बेशुमार हदीसें है जिनसे मालूम होता है कि पूरी दुनिया में आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को जो हुस्न व जमाल और मलाहत अता की गई वह किसी और को हासिल न हुई। जो हस्सान (रजि0) की जबान से यूं मजकूर है-

‘‘आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से ज्यादा हसीन आज तक न तो मेरी आंख ने देखा और न आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से ज्यादा खूबसूरत किसी औरत ही ने जना। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) तमाम (जाहिरी व बातिनी) ऐबों से पाक करके पैदा किए गए। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ऐसे ही पैदा किए गए जैसा कि आप के शायाने शान था।’’ आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की जाते सिफात मजमूआ-ए-कमालात है। कोई कमाल ऐसा नहीं जो आप में मौजूद न हो चाहे वह इल्मी हो या अमली, अखलाकी हो या मआशरती, इंफिरादी हो या इज्तिमाई, अल्लाह से ताल्लुक का कमाल हो या इंसान से, खुलासा यह कि तमाम अम्बिया (अलैहिस्सलाम) में जो कमालात तकसीम किए गए थे वह सब तनहा आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) में मौजूद थे। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के एहसानात उम्मते मुस्लेमा पर इस कदर है कि उनको किसी गिनती में बांद्दा नहीं जा सकता। इंसानियत की हिदायात व रहनुमाई के लिए आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मोमिनीन के हक में रऊफ व रहीम बल्कि रहमतुल आलमीन है, बशीर व नजीर हैं। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ही की वजह से यह उम्मत खैर उम्मत कहलाई। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ही के जरिए से किताब व हिकमत की तालीम पूरी दुनिया मे आम हुई। उम्मत के लोगों का तजकिया हुआ जो उम्मत अपनी बदआमालियों की वजह से जहन्नुम के किनारे पहुंच चुकी थी फलाह व कामरानी की शाह राह पर गामजन हुई। इस उम्मत पर यह तमाम इनामात सिर्फ आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ही के एहसानात के बदले मुकद्दर हुए।
आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की कराबत हर मुसलमान से है बल्कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की कराबत व दूसरों की कराबत से मजबूत है। क्योंकि दुनियावी कराबते जिम्सानी और फानी हुआ करती हैं और आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की कराबत रूहानी और बाकी है। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फरमाया कि कोई ऐसा शख्स कामिल मोमिन नहीं जिसके लिए मैं दुनिया व आखिरत में सारे इंसानों से ज्यादा ऊला और अकरब न हूं। (बुखारी)

एक हदीस में है कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उम्मत के हक में बमंजिला शफीक व मेहरबान बाप के हैं। जब आप की जात में तमाम खसायले जमीला व जमीअ असबाबे मोहब्बत मौजूद है तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की जात क्योंकर मोहब्बत के लायक न होगी। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से मोहब्बत की अहमियत का अंदाजा इस बात से बखूबी लगाया जा सकता है कि ईमान की तकमील इस पर मौकूफ है कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की मोहब्बत सब मोहब्बतों पर गालिब हो यानी तमाम दुनियावी ताल्लुकात पर अल्लाह और उसके रसूल की मोहब्बत को मुकद्दम रखा जाए क्योंकि एक मोमिन के लिए यही सबसे बड़ा सरमाया-ए-इफ्तिखार है। कुरआन में इरशाद है- ‘‘अगर तुम्हारे बाप तुम्हारे बेटे और तुम्हारे भाई और तुम्हारी बीवियां और तुम्हारा कुन्बा और वह माल जो तुमने कमाए हैं और वह तिजारत जिसमें निकासी न होने का तुम को अंदेशा हो और वह घर जिनको तुम पसंद करते हो, तुमको अल्लाह और उसके रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से और उसकी राह में जेहाद करने से ज्यादा प्यारे हो तो तुम मुंतजिर रहो यहां तक तुम पर अल्लाह तआला अपना हुक्म (अजाब) भेज दे।’’ (अल तौबा-24)

इस आयत में अगरचे तर्के हिजरत पर वईद बयान करना मकसूद है मगर आयत के गुमूम से यह जरूर साबित होता है कि सच्चा ईमान उसी वक्त नसीब हो सकता है जबकि अल्लाह और उसके रसूल की मोहब्बत सारी दुनिया बल्कि खुद अपनी जान से भी ज्यादा हो और आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की मोहब्बत इस दर्जे हो कि दूसरी कोई मोहब्बत उसपर गालिब न आ सके। हदीस से भी हुब्बे नबवी की अहमियत का पता चलता है कि जब तक कोई आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से दुनिया की हर महबूब चीज की मोहब्बत से ज्यादा मोहब्बत न करे और दूसरों की मोहब्बतों पर आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की मोहब्बत को फौकियत न दे तो नेक आमाल का बड़ा से बड़ा जखीरा भी उसके कुछ काम न आएगा। क्योंकि ईमान की बुनियाद और अस्ल ही आप (सल0) की मोहब्बत है। अगरचे बाकी अरकान की अहमियत अपनी जगह मुसल्लम है।

हजरत अनस (रजि0) से मरवी है कि नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इरशाद फरमाया कि कोई शख्स उस वक्त तक मोमिन नहीं हो सकता है जब तक कि मैं उसके नजदीक उसके बाप, औलाद और दुनिया के तमाम लोगों से ज्यादा महबूब न हो जाऊं। (बुखारी) हजरत अनस (रजि0) ही से रिवायत है कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने तीन बातों को ईमानी हलावत के हुसूल की अलामत करार दिया है- इंसान की नजर में अल्लाह और उसके रसूल की जात दुनिया की हर चीज से ज्यादा महबूब व पसंदीदा हो जाए। वह अपने मुसलमान भाईयों से खुदा के लिए ताल्लुक रखे (न कि किसी दुनियावी गरज व जाती मुनफअत के लिए)। वह अपने लिए कुफ्र को उसी तरह नापसंद करे जैसे आग में जलने को नापसंद समझता है। (बुखारी)

एक बार हजरत उमर फारूक (रजि0) ने आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से अर्ज किया या रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)! आप मुझे अपनी जान के सिवा हर चीज से ज्यादा अजीज हैं। यह सुनकर आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फरमाया तुम में कोई शख्स उस वक्त तक मोमिन कामिल नहीं हो सकता जब तक कि मैं उसके लिए उसकी जान से भी ज्यादा महबूब न हो जाऊं। हजरत उमर फारूक (रजि0) ने थोड़ी देर के बाद अर्ज किया बखुदा या रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)! अब आप मुझे अपनी जान से भी ज्यादा महबूब हैं। यह सुनकर आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फरमाया- ऐ उमर! अब तुम्हारा ईमान मुकम्मल हुआ। (फतहुल बारी)

अब हर शख्स खुद अपना मुहासिबा कर ले कि वह इन अलामाते मोहब्बत पर कहां तक पूरा उतरता है और कहां तक कोताही करता है। जिससे मालूम हो जाएगा कि वह अपने सादिक व मसदूक नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से किस दर्जा अकीदत व मोहब्बत रखता है और उसके नजदीक आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की मोहब्बत की किस कदर अहमियत है। जिन बातों को नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अपनी सच्ची मोहब्बत की अलामत करार दिया है और जो वाकई मेयारे मोहब्बत है अगर वह हमारी जिंदगियों में कामिल तरीके पर मौजूद है तो हम अपने दावा-ए- मोहब्बत में सच्चे हैं और अगर इसमें कुछ कमी है तो दावा झूटा होगा। इसलिए आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से मोहब्बत का अव्वलीन तकाजा यह है कि हम शरीअत के एहकाम और महबूबे इलाही की तमाम सुन्नतों और हिदायतों का ख्याल रखें और उनको अपनी जिंदगी का मकसद बनाएं। हमारी सूरत व सीरत, हमारे अखलाक व किरदार, हमारे तौर-तरीके, रहन-सहन, मआशरत व मामलात सब महबूब (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की सुन्नतों में रंग जाएं। आज यह तय कर लें कि महबूब (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की आंखों की ठंडक यानी नमाज को कभी न छोड़ेंगे, दाढ़ी की सुन्नत को मिटाकर महबूबे खुदाबंदी को नाराज न करेंगे, किसी की हक तलफी के जरिए अपनी दुनिया व आखिरत बर्बाद न करेंगे, सूद व रिश्वत लेकर अल्लाह और उसके रसूल की लानत के मुस्तहक न बनेंगे, शादी व्याह की बेजा रसूम को जड़ से खत्म करके निकाह को आसान से आसानतर बना देंगे, बेपर्दगी के खात्मे के साथ साथ सालेह समाज वजूद में लाएंगे, नई नस्ल की दीनी तर्बियत करके उनकी बेराहरवी पर रोक लगाएंगे, समाज को तमाम बुराइयों और खिलाफे सुन्नत कामो से पाक-साफ करके महबूबे रब्बुल आलमीन की शफाअत के हकदार बनेंगे और उनके दस्ते अकदस से जामे कौसर से सैराब होंगे, क्योंकि महबूब से मोहब्बत का तकाजा यही है कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के मिशन की तकमील की जाए, आप की तालीमात को आम किया जाए, आप के अखलाक व औसाफ को अख्तियार किया जाए, आप की सुन्नतों का एहया किया जाए, बिदआत व खुराफात से बचा जाए खासकर नामूसे रिसालत की हिफाजत के लिए तन मन द्दन की बाजी लगा दी जाए, यही सच्ची मोहब्बत है और यही इजहारे मोहब्बत का तरीका है। (मौलाना मोहम्मद मुजीबउद्दीन)

——————बशुक्रिया: जदीद मरकज़