नमाज़ बंदा-ए-मोमिन की मेराज है

अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त का शुक्र है कि उसने हमें इस्लाम की दौलत से मालामाल किया है। यक़ीनन ये एक ऐसी नेअमत है कि जिस पर जितना ख़ालिक़ का शुक्र अदा किया जाए, उतना ही कम है। क्योंकि ये नेअमत हर इंसान को नहीं मिल सकती। अब हम मुसलमानों पर कुछ ज़िम्मेदारियां आइद होती हैं जिसको मुकम्मल करना बहुत ही अहम होता है । इस्लाम के ताल्लुक़ से हमको जानना बेहद ज़रूरी है कि इसके कितने अरकान हैं । तो आप तमाम मुसलमानों को बताता चलूं कि अरकान-ए-इस्लाम पाँच हैं

(१) तौहीद (२) नमाज़ (३) रोज़ा (४) ज़कात (५) हज ।

आज दूसरा रूक्न  नमाज़ के ताल्लुक़ से तहरीर किया जाएगा। ये इसलिए कि हमारी नमाज़ों में ख़ुशू वु ख़ुज़ू वैसा नहीं है जैसा होना चाहीए था ।

सलात के  मानी व मतलब
सलात ये अरबी में कई एक मानी के लिए इस्तेमाल हुआ है जिनमें से जो ज़्यादातर करीब हैं वो नमाज़, दुआ और तस्बीह के हैं (ब हवाले लिसान  उल अरब) इस मुनासबत से अल्लाह सुब्हाना व तआला की बारगाह में इसका करम , जूद व सख़ा, रहमत और फ़ज़ल की ख़ैरात मांगने के लिए मुकम्मल ख़ुशू और ख़ुज़ू के साथ और उसका हक़ि्इ बंदगी अदा करने को सलात् से ताबीर किया गया है ।

अगर हम थोड़ा सा ग़ौर व फ़िक्र करें तो पता चलेगा कि कायनात की रहने वाली हर चीज़ चाहे कि वो ज़मीन वाली हो या आसमान वाली अपने अपने मुताबिक़ अल्लाहसुब्हाना व तआला की सलात यानी तस्बीह और तहमीद में मसरूफ़ रहती है ।

जैसा कि क़ुरआन ए मजीद के सूरा नूर आयत नंबर ४१ में अल्लाह तआला ने फ़रमाया है जिस का तर्जुमा ये है क्या तुम ने नहीं देखा कि जो कोई भी आसमानों और ज़मीनों में है वो सब अल्लाह तआला की ही तस्बीह करते हैं और परिंदे भी फ़िज़ाओं में पर फैलाए हुए उस की तस्बीह करते हैं , हर एक अपनी नमाज़ और तस्बीह को जानता है ।
I सलात के लिसान अल अरब में एक मानी ये भी बतलाए गए हैं कि किसी चीज़ को आग की हरारत यानी तपिश में रख कर सीधा करना । कभी कभार ये भी देखने में आता है जब कोई लोहे का टुकड़ा या लक्कड़ी तेढ़ी हो जाए तो उस को आग के करीब लेकर जाते हैं और उसकी हरारत से नरम और ख़ूबसूरत बनाया जाता है । और साथ ही उसको बिलकुल सीधा करना भी बड़ा आसान हो जाता है ।

बिलकुल इसी तरह एक मुसलमान, जिसका दिल नफ़सानी ख़ाहिशात और दुनयावी जा व जलाल की लालच के सबब वो ज़िक्र-ए-इलाही से दूर हो जाता है और अपने आप को एक ग़ाफ़िल इंसान बना लेता है । अगर एसा ग़ाफ़िल शख़्स दिन में पाँच मर्तबा अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त की बारगाह में हाज़िर होकर आजिज़ी और नियाज़ मंदी का इज़हार करे, ईसी तरह उसका सिलसिला जारी रहा तो वो बंदा एक दिन इतना मुक़र्रब हो जाएगा कि उसके हक़ में नमाज़ मेराज बन जाती है।

इसके बाद वो दुनिया और इसमें रहने वाली तमाम फ़ानी चीज़ों से दूर हो जाता है और ऐसा नमाज़ी-ओ-इबादत गुज़ार जहन्नुम की आग से भी आज़ाद हो जाएगा । नमाज़ बंदा ए मोमिन की मेराज है और यही नमाज़ अल अल-ऐलान बतला रही है कि बंदा अपने जिस्म के हर हिस्से ( दिल , ज़बान , हाथ और पांव वगैरह) से अपने ख़ालिक़-ए-हक़ीक़ी का हर लम्हा शुक्र हक़ीक़ी अदा करते रहे और मौला की याद को हमेशा अपने लिए लाज़िम करले क्योंकि अल्लाह तआला यकता और अज़मत व किबरियाई का मालिक है, उसका इक़रार करना ही दरअसल नमाज़ है ।

नमाज़ की फ़र्ज़ीयत व अहमियत

नमाज़ ये बुनियादी रुक्न है । तौहीद यानी अल्लाह की यकताई और फिर रसूल अल्लाह स०अ०व० की रिसालत के इक़रार के बाद अहम तरीन रुकन है । इसकी फ़र्ज़ीयत क़ुरआन , हदीस और इज्मा ए उम्मत से साबित है । ये नमाज़ शब-ए-मेराज के अहम मौक़ा पर फ़र्ज़ हुई है ।

और ये पाँच नमाज़ें हैं (१) फ़ज्र (२) ज़ुहर (३) अस्र (४) मग़रिब (५) इशा ।

नमाज़ की अहमियत का अंदाज़ा इस अमर से लगाया जा सकता है कि क़ुरआन मजीद में सिर्फ़ नमाज़ ही के ताल्लुक़ से तकरीबन अस्सी (८०) जगह पर ज़िक्र आया है । वैसे तो इस्लामी मुआमलात और निज़ाम इबादात में नमाज़ की अहमियत का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि कलाम ए मजीद में कम व बेश सात सौ (७००) मुक़ामात पर नमाज़ का ज़िक्र आया है जिनमें अस्सी (८०) मुक़ाम पर सराहतन ज़िक्र मौजूद है ।

आज की मेरी इस तहरीर का ख़ुलासा यही है कि नमाज़ तो हम पढ़ते हैं लेकिन ख़ुशू वु ख़ुज़ू के साथ नहीं इसलिए हम आज से ये पक्का अह्द कर लें कि नमाज़ जब भी पढें मौला को राज़ी करने के लिए पढ़ेंगे और इसमें किसी किस्म का कोई दिखावा और नाम व नमूद नहीं होगा । अल्लाह तआला हम सब को नेक तौफ़ीक़ अता फ़रमाए ।     आमीन