नमाज़ सुकून का ज़रीया

हज़रत अनस रज़ी अल्लाहु तआला अनहु से रिवायत हैके रसूल क्रीम (स०) ने फ़रमाया ख़ुशबू और औरतें मेरे लिए पसंदीदा बनाई गई हैं और मेरा कलबी सुकून-ओ-निशात, नमाज़ में रखा गया है। (अहमद-ओ-नसाई)

मेरा कलबी सुकून-ओ-निशात, नमाज़ में रखा गया है का मतलब ये है कि मुझ को जो ज़ौक़-ओ-लज़्ज़त, इस्तिग़राक़-ओ-हुज़ूर और राहत-ओ-सुरूर नमाज़ में हासिल होता है, वो किसी भी वक़्त और किसी भी इबादत में मयस्सर नहीं होता।

चुनांचे हुज़ूर (स०) पर नमाज़ के तईं इस लज़्ज़त बेखु़दी और इसी ज़ौक़ हुज़ूरी के निशात का ये असर था कि जूंही नमाज़ का वक़्त आता तो निहायत शौक़ के आलम में फ़रमाते बिलाल! जल्दी उठो और अज़ान कहो, ताकि में नमाज़ पढ़ने लगों और दूसरे उमूर की मशग़ूलियत-ओ-फ़िक़्रों से दामन छुड़ाकर मुनाजात हक़ में मशग़ूल हो जाव‌।

हदीस शरीफ़ में लफ़्ज़ क़ुर्रत इस्तेमाल हुआ है, जिस के मानी क़रार-ओ-सबात के हैं और चूँ कि जब निगाह को महबूब का दीदार नसीब हो जाता है तो ना सिर्फ़ नज़र को क़रार मिल जाता है कि निगाहें फिर किसी दूसरे को देखने की रवादार नहीं होतीं, बल्कि दिल-ओ-दिमाग़ को भी राहत-ओ-इतमीनान की दौलत मिल जाती है, जिस तरह कि महबूब का दीदार ना होने की सूरत में नज़रें परेशान और दिल बेक़रार रहता है, लिहाज़ा निगाह-ओ-दल के इसी क़रार-ओ-सुकून को हुज़ूर(स०) ने कुर्रतएनी से ताबीर फ़रमाया है।

या इस के मानी इस ठंड-ओ-लज़्ज़त के हैं, जो किसी अज़ीज़ तरीन चीज़ और महबूब के दीदार-ओ-मुशाहिदा के सुरूर से आँखों को हासिल होती है।

चुनांचे जिस तरह किसी दुश्मन और काबुल-ए-नफ़रत चीज़ को देख कर आँखों में चिनगारियां सुलगती मालूम होती हैं, इसी तरह अपनी किसी अज़ीज़तरिन चीज़ और महबूब को देख कर आँखों में ठंडक महसूस होती है, इसी लिए बेटे को कुर्रतउलएन कहा जाता है।