नूर मुहम्मद ‘नूर’: हिंदी में गजल कहता हूं

‘एक जमाने से उर्दू का समझते हैं मुझे/एक मुद्दत से मैं हिंदी में गजल कहता हूं’
जैसे अशआर लिखने वाले नूर मुहम्मद ‘नूर’ ने गजल जैसे उर्दू फॉर्म को हिंदी में कामयाबी से आजमाया है।
पेश है उनकी कुछ ग़ज़लें….

खेत के बाहर हैं फ़स्लें और पानी खेत में
इतना बरसाया खुदा ने मेहरबानी खेत में

खेत ही था गाँव उनका खेत ही था देश भी
डूब सपनों की गई यूँ राजधानी खेत में

बह गईं सब रोटियाँ-लंगोटियाँ भी बाढ़ में
बच गया आँखों में कुछ, कुछ और पानी खेत में

खनखना उठ्ठेगी फिर सोने के कंगन-सी फ़सल
जब पिघल जाएगी सोने- सी जवानी खेत में।

स्वप्न-ग्रासी योजनाएँ, बघ-नखी दुर्नीति की
ढूँढने पर ‘नूर’ मिलती है कहानी खेत में
……………………………….
यहां की रीत अजब दोस्तो, रिवाज अजब
यहां ईमान फकत बेईमान रखते हैं

हक तुझे बेशक है, शक से देख, पर यारी भी देख
ऐब हम में देख पर बंधु! वफादारी भी देख

उजाला यहां से वहां तक परेशां
वही तम इधर भी वही तम उधर भी

बेहयाई, बेवफाई, बेईमानी हर तरफ
धीरे-धीरे मर रहा आंखों का पानी हर तरफ

बात से ही धुआं निकलता है
आदमी, आदमी से जलता है
एक नफरत ही बस नहीं ढलती
जबकि सूरज भी रोज ढलता है

दर्द में दर्द की दवा की तरह
कौन मिलता है अब हवा की तरह

वक्त कितना कठिन बताएं क्या
अश्क तक आंख में नहीं होते
प्याज होता तो छील कर रोते

रखता मैं अपनी प्यास कहां तक संभाल कर
पीता हूं रोज-रोज समंदर उबाल कर

बदल कर चेहरा, अदाएं मुसलसल
जवां हो रही हैं, बलाएं मुसलसल
अभी तिश्नगी, तिश्नगी ही रहेगी
अभी गीत पानी के गाएं मुसलसल
(मुसलसल : लगातार, तिश्नगी : प्यास)

फिर कहीं दहशत न होगी फिर न होंगी आफतें
आदमी की भीड़ में इंसान सुंदर चाहिए

चल नहीं सकती अगर दुनिया खुदाओं के बिना
दोस्तो फिर तो नया भगवान सुंदर चाहिए

मुझे अनजान रहने दे
मुझे बेनाम रहने दे
मुझे ए शायरी यूं ही
जरा गुमनाम रहने दे
बुरे इस वक्त में
शेर गर अच्छे लगें मेरे
तो मेरे शेर ले जा
और मेरा नाम रहने दे

मैं खामख्वाह हथेली पे जान रखता हूं
अजीब शख्स हूं यारो, जुबान रखता हूं