परवीन शाकिर

परवीन शाकिर (1952 -1994) शायरी में एक ऐसा नाम है, जिसे उर्दू कभी भूल नहीं सकती।
ख़ुशबू, सद बर्ग, ख़ुद कलामी, इनकार और माहे तमाम उनके मजमुए कलाम मशहूर हुए। उनकी एक ग़ज़ल और कुछ नज्में यहाँ पेश हैं।

ग़ज़ल
खुली आँखों में सपना झांकता है
वो सोया है कि कुछ कुछ जागता है
तिरी चाहत के भीगे जंगलों में
मिरा तन, मोर बन कर नाचता है
मुझे हर कैफ़ीयत में क्यों ना समझे
वो मेरे सब हवाले जानता है
मैं उसकी दस्तरस में हूँ, मगर वो
मुझे मेरी रज़ा से मांगता है
किसी के ध्यान में डूबा हुआ दिल
बहाने से मुझे भी टालता है
सड़क को छोड़कर चलना पड़ेगा
कि मेरे घर का कच्चा रास्ता है

नज़्में
वाहेमा

तुम्हारा कहना है
तुम मुझे बेपनाह शिद्दत से चाहते हो
तुम्हारी चाहत
विसाल की आख़िरी हदों तक
मेरे फ़क़त मेरे नाम होगी
मुझे यक़ीन है मुझे यक़ीन है
मगर क़सम खाने वाले लड़के
तुम्हारी आँखों में एक तिल है।

चांद

एक से मुसाफ़िर हैं
एक सा मुक़द्दर है
मैं ज़मीन पर तन्हा
और वो आसमानों में

कशफ़

होंट बे बात हंसे
ज़ुल्फ़ बेवजह खुली
ख़ाब दिखला के मुझे
नींद किस सिम्त चली
ख़ुशबू लहराई मेरे कान में सरगोशी की
अपनी शर्मीली हंसी मैंने सुनी
और फिर जान गई
मेरी आँखों में तेरे नाम का तारा चमका
कांच की सुर्ख़ चौड़ी
मेरे हाथ में
आज ऐसे खनकने लगी
जैसे कल रात शबनम से लिखी हुई
तेरे हाथों की शोख़ियों को
हवाओं ने सर दे दिया हो।