…पर यकीं से भी कभी

अली सरदार जाफ़री उर्दू की तरक्की पसंद शायरी में अहम मुक़ाम रखते हैं। उनकी नज़्मों में जदीद ज़िन्दगी की पेचीदगिया भी हैं और हुस्नो इश्क की बारीकिया भी। उनकी एक ग़जल यहाँ पेश है।

मैं जहां तुम को बुलाता हूं वहां तक आओ
मेरी नज़रों से गुज़र कर दिल-ओ-जां तक आओ]

फिर ये देखो कि, जमाने की हवा है कैसी
साथ मेरे, मेरे फिरदौस-ए-जवां तक आओ

तेग की तरह चलो छोड़ के आगोश-ए- नियाम
तीर की तरह से आगोश-ए-कमां तक आओ

फूल के गिर्द फिरो बाग में मानिंद-ए-नसीम
मिस्ल-ए-परवाना किसी शमा-ए-तपन तक आओ

लो वो सदियों के जहन्नुम की हदें खत्म हुईं
अब है फिरदौस ही फिरदौस जहाँ तक आओ

छोड़ कर वहम-ओ-गुमान, हुस्न-ए-यकीं तक पहुंचो
पर यकीं से भी कभी वहम-ओ-गुमां तक आओ