पाॅपुलर फ्रंट आफ इंडिया की राष्ट्रीय कार्यकारिणी परिषद की बैठक में पारित प्रस्ताव में सभी गैर-बीजेपी विपक्षी दलों से यह अपील की गई कि वे आगामी लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी सरकार के जन-विरोधी, काॅर्पोरेट के समर्थक और साम्प्रदायिक एजेंडे के मुकाबले में एक बेहतर वैकल्पिक चुनावी घोषणापत्र के साथ जनता के सामने आएं।
बैठक में इस ओर भी इशारा किया गया कि मुसीबतों में पड़ी जनता सरकार चलाने के लिए न केवल पार्टी और नेताओं को बदलना चाहती है, बल्कि वह एक ऐसे नए भारत की तलाश में है जहां सभी नागरिकों और वर्गों को न्याय और शांति के साथ जीने का अवसर प्राप्त हो।
मौजूदा समय में स्वतंत्रता के बाद देश अब तक की बदतरीन केंद्र सरकार के साए में रहा है। मोदी सरकार हर पहलू से एक विनाशकारी सरकार साबित हुई। यह न केवल जनता की जीवन व्यवस्था को बेहतर बनाने में पूरी तरह से असफल रही है, बल्कि उनकी ज़िंदगियों विशेषकर अल्पसंख्यक समुदायों और दलितों को सुरक्षा प्रदान करने में उसे एक नाकाम सरकार कहा जा सकता है।
ऐसी खुली निशानियां मौजूद हैं कि देश की अर्थव्यवस्था संकट में पड़ चुकी है। विरोध की हर आवाज़ को अत्यंत दमनकारी और अलोकतांत्रिक तरीकों से दबाया जा रहा है। यह सारी बातें आने वाले लोसभा चुनावों को देश के इतिहास के सबसे नाज़ुक मोड़ पर ला खड़ा कर देती हैं। यह हालात न केवल मौजूदा शासक पार्टी बल्कि विपक्षाी पार्टियों से भी इस बात का बारीकी से जायज़ा लेने के लिए कहते हैं कि उन्होंने अपने लोकतांत्रिक कर्तव्य को कहां तक निभाया है।
दर्भाग्य से, केवल खोखले जुमलों और निरे वादों के सिवा जैसा कि बीजेपी ने 2014 के चुनावों से पहले किया था, विपक्षी दलों से हमें कोई भी स्पष्ट और अमल के काबिल चुनावी घोषणापत्र नहीं मिला है जो बीजेपी की अमीरों की सरमर्थक, जन-विरोधी और साम्प्रदायिक राजनीति का विकल्प बन सकता हो। समाज के कमज़ोर और गरीब वर्ग एक वैकल्पिक राजनीति की आस लगाए बैठे हैं। वह यह देखना चाहते हैं कि बीजेपी के मातहत भारत से बीजेपी के बाद का भारत कितना अलग होने वाला है।
जब हम कांग्रेस के शासनकाल पर नज़र डालते हैं तो वह भी कई मामलों में बीजेपी के साथ खड़ी नज़र आती है। कांग्रेस के समय में भी साम्प्रदायिक तत्वों को विभिन्न अवसरों पर माफी दे दी गई। बाबरी मस्जिद विध्वंस से लेकर कई मुस्लिम विरोधी दंगों तक न जाने कितने हमले कांग्रेस सरकार में ही हुए थे। यूएपीए और अफसपा जैसे अधिकतर काले कानून और एनआईए जैसी दमनकारी एजेंसियों की बुनियाद भी कांग्रसे ने ही डाली थी। अगर कांग्रेस सरकार ने अपनी नव-उदारवादी नीतियों द्वारा बड़े कारोबारियों के लिए देश के दरवाज़े खोले थे, तो आज बीजेपी उसी को बढ़ावा दे रही है।
जब बीजेपी ने भारत में सकारात्मक कार्यवाई की बुनियादों को तबाह करते हुए स्वर्णों के लिए आर्थिक आधार पर दस प्रतिशत आरक्षण का कानून पेश किया, तो लेफ्ट और क्षेत्रीय पार्टियों सहित लगभग सभी बड़ी विपक्षी पार्टियों ने इसके समर्थक में रैलियां कीं। अगर कांग्रेस व अन्य पार्टियां अपनी नीतियों में बिना कोई बुनियादी बदलाव लाए केवल सरकार बदलना चाहती हैं, तो वे इतना भी नैतिक अधिकार नहीं रखतीं कि वे खुद को बीजेपी के विकल्प के रूप में पेश करें।
इस तरह से वे कभी भी देश को एक बार फिर फासीवादी हाथों में जाने से नहीं रोक सकेंगी और न ही देश की जनता की आर्थिक स्थिति और जीवनशैली को बेहतर बना सकेंगी। बैठक ने बीजेपी और उसके साथी दलों को छोड़कर सभी विपक्षी दलों से इस बात की मांग की कि वे एक ऐसा स्पष्ट और बेहतर चुनावी घोषणापत्र लेकर आएं जो आम लोगों की ज़िंदगी को बेहतर बनाने की ज़मानत देता हो और सभी पीड़ित वर्गों और अल्पसंख्यक समुदायों को समान न्याय और सुरक्षा देने को सुनिश्चित करता हो।