पिछले दस साल में महंगाई में 300%इज़ाफ़ा मगर…

हाफ़िज़-ए-क़ुरआन को पेश किए जाने वाले हदया (वेतन) में कोई इज़ाफ़ा नहीं,औसत हदया 3 से हज़ार तक महदूद(सीमित)!

हदीस पाक में हाफ़िज़-ए-क़ुरआन की जो फ़ज़ीलत और अज़मत बयान की गई है,इस का तर्जुमा है हाफ़िज़-ए-क़ुरआन इस्लाम के झंडे को उठाने वाला है और जिस शख़्स ने उनकी ताज़ीम की यक़ीनन इस ने अल्लाह ताला की ताज़ीम की और जिस ने उनकी तौहीन की इस पर अल्लाह की लानत है( कनज़ुल अमाल हदीस नंबर २२९४ ) ये हदीस पाक, मज़हब और मज़हबी शख़्सयात के हवाले से तस्वीर का वो रख पेश करती है जिसे हम किताबों में पढ़ते हैं और वाइज़ों के वाइज़ में सुनते हैं …..मगर तस्वीर का दूसरा रुख़ वो है जिसमें हम जैसे मुस्लमानों को हाफ़िज़-ए-क़ुरआन की इज़्ज़त व अज़मत का ख़्याल साल में सिर्फ एक बारे यानी रमज़ान में आता है।

एक हाफ़िज़-ए-क़ुरआन जो तालिब इलमी के दौर से ही मुख़्तलिफ़ मुश्किलात और मसाइब का सामना करते हुए क़ुरान-ए-पाक को अपने सीने में महफ़ूज़ करता है और अल्लाह ताला की जानिब से किए गए वादा हिफ़ाज़त-ए-क़ुरआन का ज़रीया बनता है,इस मुहतरम और मुकर्रम तबक़ा के तईं हमारा किरदार क्या होना चाहीए ,ये मज़कूरा बाला हदीस की रोशनी में अच्छी तरह अंदाज़ा किया जा सकता है।

रुपये (फिर भी) आज जब हम अपने मुआशरे में हुफ़्फ़ाज़ किराम की क़द्रो क़ीमत का जायज़ा लेते हैं तो पता चलता है कि रमज़ान उल-मुबारक में भी हमारा उन से ताल्लुक़ सिर्फ तरावीह पढ़ने और पढ़ा ने की हद तक ही रहता है और फिर साल तमाम कभी उनकी तरफ़ पलट कर भी नहीं देखते कि जज़ाए आख़िरत के सहारे छोड़ दिए जाने वाले इस मुहतरम तबक़े की मौजूदा ज़िंदगी किस तरह मआशी मसाइल का शिकार है।सब से तकलीफ दह पहलू ये है कि रमज़ान जैसे मुक़द्दस महिने में भी उन्हें जो हदया पेश किया जाता है वो इस क़दर मामूली और क़लील होताहै कि महंगाई के इस दौर में इस रक़म से रमज़ान और ईद की ज़रूरियात भी पूरी नहीं हो सकती।

सितम ज़रीफ़ी ये है कि शहर की अक्सर मसाजिद में हाफ़िज़ साहिब य तरावीह के नाम पर ही मुस्लियों से ख़ुसूसी चंदा हासिल किया जाता है जिसमें हज़ारों रुपये जमा होते हैं मगर चंद एक बड़ी मसाजिद को छोड़कर अक्सर मस्जिदों में हुफ़्फ़ाज़ किराम को जो नज़राना पेश किया जाता है वो तीन से पाँच हज़ार रुपये के दरमियान होता है । हस्सास तबीआत रखने वाले मुस्लमानों का ये मानना है कि ये हुफ़्फ़ाज़ किराम की एक तरह से नाक़द्री है कि आप रमज़ान तमाम उनके पीछे तरावीह पढ़ कर सवाब लूटें , क़ुरान-ए-पाक की तिलावत सुनें , और फिर उनके नाम पर ख़ुसूसी चंदा करें मगर जमा शूदा रक़म का सिर्फ एक मामूली हिस्सा उनके हवाले करें।

इन का कहना है कि इसमें कोई शक नहीं कि तरावीह केलिए मुआवज़ा का मुतालिबा शरई एतबार से नाजायज़ है,और बेशक एक हाफ़िज़-ए-क़ुरआन को फ़ी सबीलि ल्लाह तरावीह पढ़ानी चाहीए मगर एक उसे दौर में जब हुफ़्फ़ाज़ किराम की अक्सरियत मआशी तौर पर कमज़ोर है ,ज़िम्मा दारान मसाजिद का ये अख़लाक़ी फ़रीज़ा है कि वो बगैर किसी मुतालिबा कि ए नहीं ख़ातिर ख़वाह नज़राना पेश करते हुए उनके मआशी मसाइल हल करने में उनकी मदद करें,ख़ास कर ऐसी सूरत में जब उनके ही नाम पर मुस्लियों से चंदा किया जाय ।इस में कोई दो राय नहीं कि मआशी मसाइल मुस्लमानों के हर तबक़ा में मौजूद है मगर हर उस तबक़ा के अफ़राद की अजरतों या मेहनताना में वक़्त के लिहाज़ से इज़ाफ़ा (मामूली तौर पर ही सही) किया गया है

,मगर जहां तक मज़हबी शख़्सयात का मुआमला है उन्हें पेश किए जाने वाले हदया में एक अंदाज़े के मुताबिक़ पिछले दस बरसों में कोई इज़ाफ़ा नहीं किया गया है जबकि इस दौरान महंगाई में तीन सौ फीसद से ज़ाइद इज़ाफ़ा दर्ज किया गया है।इसमें भी कोई शक नहीं कि हुफ़्फ़ाज़ किराम की मेहन्तों का सिला परवरदिगार आलम उन्हें अता करने वाला है और ऐसा सिला जिसे देख कर अहले मह्शर रशक करने लगेंगे,जैसा कि सय्यदना अबदुल्लाह बिन उमर बिन आस रज़ी अल्लाह तआला अन्हुमा से रिवायत है कि

हज़रत नबी करीम स ने फ़र्माया (रोज़ क़यामत )साहिब क़ुरआन से(क़ुरआन पढ़ने और उसे हिफ़्ज़ करने वाले) से कहा जाऐगा,क़ुरआन पढ़ता जा और (दर्जे) चढ़ता जा और इसतरह आहिस्ता आहिस्ता तिलावत कर जैसे तो दुनिया में तरतील से पड़ता था, चुनांचे तेरा मुक़ाम-वही होगा जहां तेरी आख़िरी आयत की तिलावत ख़तम होगी (हदीस नंबर ६५०८) ।

इस क़दर फ़ज़ीलत-ओ-अज़मत के बावजूद इस हक़ीक़त से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि हुफ़्फ़ाज़ किराम की अक्सरियत मआशी तौर पर कमज़ोर होती है और मआशी तौर पर परेशान हाल हाफ़िज़-ए-क़ुरआन जब तरावीह सुनाते हैं तो उन्हें कई एक ज़हनी दबाव का सामना रहता है ,एसे में अगर इस मुहतरम तबक़ा की माली इमदाद ,ख़ाह नज़राने की शक्ल में हो या तोहफ़ा जात की सूरत में क्या जाय तो यकीनन ये भी ताज़ीम व तकरीम के दायरे में ही शुमार किया जाऐगा और हमारे लिए बाइस बरकत-ओ-रहमत होगा इंशाअल्लाह।