पुराने शहर में राय दही के फ़ीसद में कमी की अहम वजह….

हैदराबाद के दो लोक सभा और 14 असेंबली हलक़ों में राय दही के कम फ़ीसद पर एक तरफ़ सियासी पार्टीयां तो दूसरी तरफ़ सियासी मुबस्सिरीन मुख़्तलिफ़ अंदाज़े क़ायम कररहे हैं।

राय दही के मौके पर नुमाइंदा सियासत ने मुख़्तलिफ़ असेंबली हलक़ों के दौरे के मौके पर अवाम से रब्त क़ायम करते हुए राय दही में अदम दिलचस्पी की वजूहात जानने की कोशिश की।

इलेक्शन कमीशन आफ़ इंडिया और दुस्‍रे समाजी इदारों की तरफ से अवाम में राय दही के हक़ में शऊर बेदारी के लिए ज़बरदस्त मुहिम चलाई गई इस के बावजूद हैदराबाद और सिकंदराबाद में राय दही का फ़ीसद 53 से ज़ाइद नहीं बढ़ सका।

इलेक्शन कमीशन इसे स्कूलों को तातीलात के सबब तफ़रीह के लिए ख़ानदानों की मुंतक़ली अहम वजह क़रार दे रहा है जबकि बाज़ गोशे गर्मी को कम राय दही का सबब बता रहे हैं।

हक़ीक़त ये हैके अवामी नुमाइंदों की अदम कारकर्दगी और अवाम से उनकी बेताल्लुक़ी राय दही में कमी की अहम वजह रही है। अक्सर राय दहिंदों का कहना था कि अवामी नुमाइंदे सिर्फ़ पाँच साल में एक मर्तबा उन से रुजू होते हैं और वो भी वोट हासिल करने के लिए। इस के बरख़िलाफ़ पाँच बरसों के दौरान अवामी मसाइल की यकसूई पर कोई तवज्जा नहीं दी जाती। अगर अवामी नुमाइंदों से रास्त रब्त क़ायम किया जाये तो वो अपने किसी नुमाइंदा से मसले को रुजू करने का मश्वरा देते हैं।

ओहदे पर रहते हुए पाँच बरस तक अवामी नुमाइंदा अवाम से दूरी इख़तियार करता है और इस का मुंतख़ब करने वाले राय दहिंदों से कोई रब्त नहीं होता। यही वजह है कि अवाम और अवामी नुमाइंदा के दरमयान कोई ताल्लुक़-ए-ख़ातिर और लगाओ बाक़ी नहीं रहा। अगरचे देही इलाक़ों में अवामी नुमाइंदे और सियासी क़ाइदीन अक्सर-ओ-बेशतर अवाम से रब्त में रहते हैं लेकिन शहरी इलाक़ों की सूरत-ए-हाल मुख़्तलिफ़ है। हैदराबाद-ओ-सिकंदराबाद के 14 असेंबली हलक़ों के नुमाइंदों के बारे में राय दहिंदों का यही कहना था कि एयरकंडीशनड गाड़ीयों और ए सी चैंबर्स में रहने वाले नुमाइंदों और उन की बातों पर अब भरोसा नहीं।पुराने शहर के असेंबली हलक़ों में कम राय दही के फ़ीसद ने सियासी जमातों और उम्मीदवारों को उलझन में मुबतला कर दिया है।

बाज़ हलक़े तो एसे हैं जहां मौजूदा रुकने असेंबली अपनी कामयाबी का दावा नहीं करसकता। जिस क़दर भी राय दही रिकार्ड की गई इस में लम्हा आख़िर में की गई बोग्स राय दही का फ़ीसद ज़्यादा है। शहर के लोक सभा हलक़ा हैदराबाद और असेंबली हलक़ाजात मलकपेट, कारवाँ, गोशा महल, चारमीनार, चंदरायनगुट्टा, याक़ूतपूरा और बहादुरपूरा में राय दही की सुस्त रफ़्तारी और लम्हा आख़िर में इज़ाफ़ा को देखते हुए यक़ीनी तौर पर कहा जा सकता है कि इन हलक़ाजात में हक़ीक़ी राय दही बमुश्किल 25 फ़ीसद रही और माबकी 25 फ़ीसद बोग्स राय दही का हिस्सा है।

पिछ्ले आम चुनाव में भी राय दही का यही रुजहान देखा गया और नुमाइंदे सिर्फ़ 18 ता 20 फ़ीसद अवाम की ताईद से मुंतख़ब होरहे हैं और राय दहिंदों की अक्सरीयत ने ख़ुद को राय दही के अमल से दूर रखते हुए अमलन अवामी नुमाइंदों से अपनी नाराज़गी का इज़हार किया है।

पुराने शहर के असेंबली हलक़ा जात में चुनाव मुहिम के दौरान अगरचे हज़ारों का हुजूम देखा गया लेकिन इस हुजूम को वोट में तबदील करने में उम्मीदवार नाकाम रहे। पुराने शहर के अवाम का एहसास था कि उन्हें राय दही से इस लिए भी दिलचस्पी नहीं क्युंकि उनके वोट ना देने से कुछ फ़र्क़ पड़ने वाला नहीं। एसा महसूस होरहा था कि अवामी नुमाइंदों और उम्मीदवारों से अवाम को कोई कलबी लगाओ नहीं है। बाज़ मुक़ामात पर ख़ुद उम्मीदवारों ने अवाम को राय दही में हिस्सा लेने की तरग़ीब दी लेकिन अवाम ने उनकी दरख़ास्त को मुस्तर्द कर दिया।

पुराने शहर के पोलिंग स्टेशनों पर दोपहर तक किसी क़दर हक़ीक़ी राय दहिंदे देखे गए इस के बाद राय दही के इख़तेताम तक जो कुछ किया गया उसे जमहूरीयत का क़त्ल ही कहा जा सकता है। पुराने शहर में साबिक़ में एसे अवामी नुमाइंदे रह चुके हैं जिन की अवामी मक़बूलियत किसी से ढकी छिपी नहीं। पुराने शहर के हलक़ों में हलक़ा असेंबली चंदरायनगुट्टा राय दही के मुआमले में हमेशा सर-ए-फ़हरिस्त रहा है। जिस वक़्त इस हलके की नुमाइंदगी मुहम्मद अमानुल्लाह ख़ां कररहे थे हर इलेक्शन में राय दही का फ़ीसद 90 से ज़ाइद होता। बाज़ इलेक्शन मराकिज़ पर मुक़र्ररा राय दहिंदों की तादाद से ज़्यादा वोट डाले गए। जिस पर इलेक्शन कमीशन को वहां दुबारा राय दही करानी पड़ी। बाज़ मर्तबा 100 फ़ीसद राय दही की सूरत में दुबारा राय दही का हुक्म दिया गया लेकिन दुबारा भी 100 फ़ीसद राय दही हुई। उस की वजह अवाम का अपने नुमाइंदा से ताल्लुक़-ए-ख़ातिर था और अमानुल्लाह ख़ां भी 18 घंटे अवाम के दरमयान मौजूद होते। ग़रीब और सल्लम बस्तीयों में हर मामूली सी ख़ुशी और ग़म के मौके पर वो दिखाई देते। यही वजह थी कि हमेशा उन के हक़ में राय दही में हिस्सा लेने वालों में जोश-ओ-ख़ुरोश देखा जाता।

जब तक भी उन्होंने हलक़ा असेंबली चंदरायनगुट्टा की नुमाइंदगी की उन की कारकर्दगी दुसरे हलक़ों के मुक़ाबले नुमायां रही। उनकी तरफ से अंजाम दिए गए तरक़्क़ीयाती काम आज भी उन की याद ताज़ा करते हैं। उस ज़माने में उम्मीदवार को आज की तरह करोड़ों रुपये ख़र्च करने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी जबकि आज करोड़ों रुपये ख़र्च करने के बावजूद नुमाइंदे अपनी अदम मक़बूलियत और अदम कारकर्दगी के बाइस 50 फ़ीसद भी हक़ीक़ी राय दही कराने में नाकाम हैं। इस तरह की सूरते हाल हक़ीक़ी नुमाइंदों के चुनाव में रुकावट बन सकती है और सिर्फ़ सरमायादार और ताक़त रखने वाले अफ़राद ही मुंतख़ब होते रहेंगे।इस तरह का इलेक्शन जमहूरीयत के लिए भी ठीक नहीं। 2014 चुनाव के बाद मुंतख़ब होने वाले नुमाइंदों को अवामी ख़िदमत के लिए वक़्फ़ होना पड़ेगा क्युंकि इस के बगै़र राय दही के फ़ीसद में इज़ाफ़ा नहीं किया जा सकता।