मुहम्मद जसीम उद्दीन निज़ामी – सैयद इरफ़ान साकिन जहॉ नुमा पिछले हफ़्ते पुराने शहर के एक मशहूर हॉस्पिटल में अपनी अहलिया को डिलीवरी के लिए शरीक करवाया था, बाक़ौल उनके तमाम चेकअप वक़्त पर कराए गए, सारे स्केनिंग और अल्ट्रा साउंड रिपोर्ट लम्हा आख़िर तक ठीक थे, मगर अचानक डॉक्टर ने उन्हें बताया कि सेज़ेरीएन ऑपरेशन करना पड़ेगा, दस्तख़त करो!
थोड़ी देर के लिए हम ख़ौफ़ज़दा हो गए और हैरान भी, जब पूछा कि प्राब्लम किया है तो तशफ्फी बख़्श वज़ाहत करने के बजाय उन्हों ने कहा कि देर की तो कुछ भी हो सकता है, फिर मत बोलना डर के मारे हम ने दस्तख़त कर दिए और फिर उन्हों ने ऑपरेशन के ज़रीए डिलीवरी अंजाम देकर चार पाँच हज़ार की जगह 25 हज़ार का बिल बना दिया जिसे क़र्ज़ लेकर अदा करना पड़ा ….. ये वो अफ़सोसनाक मसअला है जो सिर्फ़ ऐसी एक हॉस्पिटल की हद तक महदूद नहीं है बल्कि शहर के तकरीबन प्राइवेट ज़च्गीख़ानों में ऑपरेशन के नाम पर लूट खसूट का ये मुआमला आए दिन पेश आता रहता है।
ऐसा नहीं है कि डिलीवरी के मुआमले में ऑपरेशन की ज़रूरत नहीं होती ,ज़रूरत होती है बल्कि अक्सर ऐसे पेचीदा मसाइल पैदा हो जाते हैं कि सेज़ेरीएन ऑपरेशन ना करने की सूरत में ज़च्चा और बच्चा दोनों की जान को ख़तरा लाहक़ हो सकता है … लेकिन यही वो पेचीदा मसाइल हैं जिसे अक्सर औक़ात बढ़ा चढ़ा कर रिश्तेदारों को ख़ौफज़दा कर दिया जाता है और महज़ पैसों के लिए तकरीबन 75 फीसदी मुआमलों में नॉर्मल डिलीवरी को भी ऑपरेशन के ज़रीए अंजाम देने पर मजबूर कर दिया जाता है। इस हक़ीक़त का इन्किशाफ़ आलमी इदारा सेहत की एक रिपोर्ट में भी किया गया है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि, कई बार सेज़ेरीएन ऑप्रेशन अशद ज़रूरत पड़ने पर नहीं बल्कि पैसा कमाने के लिए किए जाते हैं। राक़िमुल हरूफ़ ने सरकारी ज़च्गीख़ाने के एक लेडी डॉक्टर से बात की तो उन्होंने कोई मुक़र्ररा आदादो शुमार देने के बजाय एक औसत अंदाज़ा ब्यान करते हुए कहा कि उनके पास औसतन 100 डिलीवरी में से 60 ता 70 फ़ीसद नॉर्मल डिलीवरीज़ अंजाम पाती हैं,जबकि ऑपरेशन थिएटर का रुख़ उन्ही ख़वातीन को करना पड़ता है जिसे इब्तिदा से ही कोई मसाइल दर्पेश हो या ऐन वक़्त पर कोई संगीन सूरते हाल पैदा हो गई हो।
उनके मुताबिक़, ये कोशिश की जाती है कि नॉर्मल डिलीवरी अंजाम दी जा सके ताकि मॉ की सेहत पर कोई मन्फ़ी असरात मुरत्तिब ना हो सके जबकि दूसरी तरफ़ ख़ान्गी ज़च्गी ख़ानों में सूरते हाल बिलकुल बरअक्स है ,जहां ज़्यादा तर डेलीवरीज़ ऑपरेशन के ज़रीए ही अंजाम पा रही हैं। हालाँकि मुताल्लिक़ा इंतिज़ामीया और डॉक्टर्स ने की इसे महज़ इल्ज़ाम क़रार देते हुए उसकी तर्दीद की है।
उनका कहना है कि उन से रुजू होने वाली ख़वातीन की अक्सरियत कुछ ना कुछ ऐसे पेचीदा मसाइल से दो चार होते हैं कि ऑपरेशन करना लाज़िमी होता है,और अगर वो ऐसा ना करें तो ज़च्चा या बच्चा को ख़तरा लाहक़ होने का इमकान रहता है।
जब उनकी तवज्जा सरकारी ज़च्गी ख़ानों में होने वाली नॉर्मल डिलीवरी की शरह की तरह दिलाई गई तो उनका कहना था कि आम तौर पर ख़ान्गी दवाखानों में कोई भी डॉक्टर्स मामूली रिस्क भी लेना नहीं चाहते चूँकि यहां रिश्ता दारों का दबाव और कोई हादिसा पेश आने की सूरत में दवाखाने की बदनामी का भी ख़ौफ़ होता है। जबकि सरकारी दवा ख़ानों का मुआमला बरअक्स होता है,जहां उमूमन गरीब तबक़ा रुजू होता है और यहाँ मरीज़ और डॉक्टर्स दोनों मामूली रिस्क को क़बूल कर लेते हैं।
दूसरी तरफ़ जब मैं ने शहर के चार मशहूर ख़ान्गी दवाख़ानों में मौजूद हामिला ख़वातीन के रिश्ता दारों से बात की तो उनका कहना था कि मामूली मसअला होने पर भी डॉक्टर्स उन्हें ऑपरेशन के लिए मजबूर कर देते हैं।