प्रवासियों का जयघोष

फीफा वर्ल्ड कप समाप्त हो गया लेकिन उसकी चर्चा लंबे समय तक जारी रहेगी। कुछ दिन लोग इस पर बात करते रहेंगे कि अमुक टीम बहुत अच्छा खेली। अमुक खिलाड़ी ने शानदार प्रदर्शन किया, लेकिन इससे लंबी चर्चा खेल से बाहर के पहलुओं पर चलेगी। खासकर इस बात पर कि किस तरह फ्रांस ने प्रवासी पृष्ठभूमि के खिलाड़ियों की बहुतायत के बल पर विश्व विजेता का खिताब हासिल किया।

23 खिलाड़ियों की उसकी टीम में 15 अफ्रीकी मूल के थे, जिनमें सात को फाइनल खेलने का मौका मिला और यह किस्सा सिर्फ एक टीम या एक फुटबॉल विश्व कप तक सीमित नहीं है।

फुटबॉल के मैदान में राष्ट्रीयताओं के एक-दूसरे में घुलने-मिलने का सिलसिला बहुत तेज हो गया है। क्रोएशिया जैसे एकाध अपवादों को छोड़ दें तो लगभग सारी ही टीमों का रूप बहुराष्ट्रीय हो गया है। एक देश में प्रवासी के तौर पर आ बसने वाले लोग उस देश की टीम का अभिन्न अंग बन जाते हैं।

इस बार यूरोप की दस टीमों के 230 खिलाड़ियों में 83 प्रवासी थे। फ्रांस की टीम को तो 1998 की जीत के समय से ही इंद्रधनुषी टीम कहा जाने लगा है। उस समय इस टीम में स्टार खिलाड़ी जिनेदिन जिदान और लिलियम थुरम समेत 11 खिलाड़ी प्रवासी थे। इस बार के प्रवासी फ्रेंच नायकों में स्टार खिलाड़ी पॉल पोग्बा और युवा दिलों की धड़कन किलियन एम्बापे भी शामिल हैं।

पहले नॉकआउट मैच में फ्रांस ने अर्जेंटीना को 4-3 से हराया तो फ्रांसीसी खिलाड़ी पर्सेनेल किमपेबे ने इंस्टाग्राम पर एक वीडियो डाला था, जिसमें वे टीम के साथ ‘सीका-सीका’ गाने पर डांस कर रहे थे जो कॉन्गो के स्टार सिंगर डीजे मारेसल का है। फ्रांस का गौरव बढ़ाने वाले ये खिलाड़ी उन प्रवासियों के बच्चे हैं, जो फ्रांस में छोटे-मोटे काम करके किसी तरह अपना पेट पालते हैं। अभावों और तकलीफों के बीच से ही ये युवा खिलाड़ी उभरकर आए हैं। जर्मनी, इंग्लैंड और बेल्जियम जैसे देशों के प्रवासी खिलाड़ियों की भी यही कहानी है।

आज दुनिया भर में प्रवासियों को कोसा जा रहा है। उन्हें तमाम मुश्किलों की जड़ बताकर बाहर ही रोकने, और घुस गए हों तो खदेड़ देने का अभियान सा चल पड़ा है। अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने तो अपना चुनाव ही प्रवासियों को बाहर करने के मुद्दे पर लड़ा था। इंग्लैंड के ब्रेक्सिट फैसले के पीछे भी मुख्य मुद्दा प्रवासियों का ही था। न जाने कितने शरणार्थी रोज यूरोप के नजदीकी समुद्रों में डूबकर मर जाते हैं।

हमारे पड़ोस में रोहिंग्याओं को उनका गृह देश ही नहीं अपनाना चाहता। फीफा वर्ल्ड कप ने इस मुद्दे की ओर दुनिया का ध्यान खींचा है। दुनिया में संसाधनों का बंटवारा अत्यंत असमान है, इसलिए धरती पर इंसान की एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में आवाजाही दिनोंदिन तेज ही होगी। इसके खिलाफ आग की दीवार खड़ी करने से अच्छा है, लोग आपस में अपने सुख-दुख बांटें और मिलकर रहें।

सौजन्य – नवभारत टाइम्स।