रसूल उल्लाह स.व. ने मुसालहत(सुलह) की एक और कोशिश के लिए मक्का का सफ़र किया। मक्का के शुमाल की जानिब जाने वाले तिजारती क़ाफ़िले (मुस्लमानों के हमलों कि वजह से) रुक जाने की वजह से उन की मईशत(जिंदगी) तबाह हो चुकी थी। रसूल अल्लाह स.व. ने उन के तिजारती(कारोबारी) क़ाफ़िलों के लिए बहिफ़ाज़त राहदारी(हिफाजत के साथ गुजार देने) का वायदा किया और ये
भी कि जो काफ़िर भाग कर मदीना जाएंगे, उन को वापिस कर दिया जाएगा। आप स.व. ने उन की हर शर्त तस्लीम करली(कबुल करली), हत्ता कि उमरा किए बगै़र मदीना वापिस जाने का मुतालिबा भी मान लिया। मक्का में हुदैबिया के मुक़ाम(जगह) पर होने वाले इस मुआहिदा में ना सिर्फ फ़रीक़ैन(दोनों जमातों) ने ख़ुद जंग ना करने का अह्द किया, बल्कि किसी एक फ़रीक़(जमात) की तीसरे के साथ लड़ाई में भी ग़ैर जानिब्दार रहने का(किसी कि तरफ ना रहने का) समझौता कर लिया।
मक्का के काफीरों के साथ अमन(शांती) का मुआहिदा हो जाने के बाद रसूल अल्लाह स.व. ने तब्लीग़ इस्लाम(इस्लाम को लोगों तक पहुंचाने) के लिए एक वसीअ तर(बडे पैमाने पर) प्रोग्राम का आग़ाज़ किया(शुरुआत कि)। आप स.व. ने रुम (शाम), ईरान, हब्शा (अबीसीनिया) और दूसरी रियास्तों के हुकमरानों(बादशाहों) को ख़ुतूत(पत्र) लिखे, जिन में उन्हें इस्लाम क़बूल करने की दावत दी। बाज़ नितीनी (रूमी) लॉट पादरी ने इस्लाम क़बूल कर लिया, मगर इस के मसीही पैरोकारों ने उसे मौत के घाट उतार दिया।
सूबा मआन (फ़लस्तीन) के गवर्नर (फ़रोह बिन अमरो जुज़ामी) के साथ भी यही सुलूक हुआ और शहनशाह के हुक्म पर इस का सर क़लम कर(काट)दिया गया। शाम (फ़लस्तीन) के इलाके में मुसल्मान सफ़ीर को क़त्ल कर दिया गया और बजाए मुजरिमों को सज़ा देने के रूमी शहनशाह हिरक़्ल उन की मदद के लिए फ़ौज लेकर आ धमका, ताकि उन के ख़िलाफ़ जो फ़ौज रसूल अल्लाह स.व. ने रवाना फ़रमाई(भेजी) थी, इस का मुक़ाबला किया जाए। (जंग मौता)
मक्का के काफीरों ने एक मरहले(मौके) पर मुसल्मानों को मुश्किलात में घिरा देख कर मुआहिदा-ओ-हुदैबिया की ख़िलाफ़वरज़ी की, जिस पर रसूल अल्लाह स.व. ख़ुद दस हज़ार का एक मज्बूत लश्कर लेकर बगै़र किसी को मंज़िल का पता दिए, मक्का की तरफ़ रवाना हुए और अचानक उन्हें आ लिया(पकड लिया)। मक्का पर क़बज़ा ख़ून का क़तरा बहाए बगै़र मुकम्मल हो गया।
आप स.व. फ़ातिह(वीजेतिय) होने के बावजूद पैकर रहमत थे(बहुत ज्यादा रहम करने वालें थे)। आप ने अहल मक्का(मक्का वालों) को जमा होने का हुक्म दिया और उन्हें उन की बीस बरस की ज़्यादतियां(जुल्म) याद दिलाइ कि किस तरह उन्हों ने अल्लाह का नाम लेने पर मुसल्मानों पर जबर-ओ-ताज़ीब के कोड़ें बरसाए(सजाएं दीं), मुहाजिरीन की अम्लाक(मालों) पर ग़ासिबाना क़ब्ज़ा किया, मदीना में उन पर हमला आवर हुए(हमला किया) और मुसल्सल मुख़ासिमाना(लगातार दुशमनो जैसा) रवैय्या अपनाए रखा। सब सर झुकाए शर्मिंदा खड़े थे। आप स.व. ने पूछा अब तुम लोग मुझ से किस सुलूक की तवक़्क़ो(उम्मीद) रखते हो?। मज्मा(लोगों कि भीड) से आवाज़ें उभरीं आप करीम भाई हैं और करीम भाई के बेटे हैं। आप स.व. ने एलान आम फ़र्मा(एक आम एलान कर) दिया कि आज तुम पर कोई सरज़निश नहीं, जाओ तुम सब आज़ाद हो।
इस एलान से तो गोया दीलों की काया पलट गई। ये एलान सुनने के बाद मक्का का एक सरदार (इताब बिन उसैद) इस्लाम क़बूल करने का इरादा लेकर रसूल अल्लाह स.व. की तरफ़ बढ़ रहा था तो आप स.व. ने उसे देख कर फ़रमाया(कहा) में तुम को मक्का का हाकिम मुक़र्रर करता हूँ। मफ़्तूहा(आजाद किये हुए) मक्का में एक भी मुसल्मान सिपाही मुतय्यन(तय) किए बगै़र आप स.व. मदीना लौट गए। यानी मक्का को मुसल्मान करने का अमल(काम) चंद घंटों में मुकम्मल(पुरा) हो गया।
फ़तह मक्का के फ़ौरन बाद शहर ताइफ के मकीन(रहवासी) रसूल अल्लाह स.व. के ख़िलाफ़ जंग पर आमादा(तैयार) हो गए। कुछ मुश्किलात के बाद दुश्मन को वादी ए हुनैन में शिकस्त(हार ) दे कर मुंतशिर कर(बीखेर)दिया गया, मगर मुसल्मानों ने ताइफ का मुहासिरा(गेराउ) उठाकर पुर अमन ज़राए(शांती शालि तरीकों) से इस इलाक़े की मुज़ाहमत(झगडा) ख़त्म करने का फ़ैसला किया। चुनांचे एक साल से भी कम अर्सा(वकत) में ताइफ का वफ़द मदीना में रसूल अल्लाह स.व. की ख़िदमत में हाज़िर हुआ(पास आया) और इताअत क़बूल करने की पेशकश की, ताहम(लेकिन) उन्हों ने इस्तिदा(दरखास्त) की कि उन्हें नमाज़, ज़कात ओ उशर, फ़ौजी ख़िदमात से मुस्तस्ना(अलग) रखा जाए, जबकि जिना और शराबनोशी(शराब पीने) की आज़ादी बरक़रार(बाकी) रखने की भी इजाज़त हो, नीज़ ये भी कि ताइफ में उन के बुत लात का माबद(मंदीर) भी मुनहदिम ना किया जाए((ना तोडा जाए)। मगर इस्लाम कोई माद्दियत पसंद, ग़ैर अख़लाक़ी तहरीक नहीं कि मन मानियों की इजाज़त हो। फ़ौरन ही अहल ताइफ को अपने मुतालिबात के मुज्हिका ख़ेज़(समझ दारी से दूर) होने का यक़ीन हो गया और वो अपने रवैया पर शर्मसार(शर्मींदा) हुए।
रसूल अल्लाह स.व. ने उन्हें (वक़्ती तौर पर) ज़कात ओ उशर की अदायगी और फ़ौजी ख़िदमात से मुस्तस्ना(अल्ग) कर दिया और बुत के इन्हिदाम(तोड ने) के बारे में फ़रमाया(कहा) कि तुम्हें उसे अपने हाथों मुनहदिम करने(तोड ने) की ज़रूरत नहीं, हम यहां से कुछ लोगों को भेज देंगे, जो ये काम करदेंगे और अगर तुम्हें अंदेशा(डर) है कि बुत के इन्हिदाम(तोड ने) से कोई नुक़्सान पहुंचेगा तो आप लोग बेफ़िकर रहें, इस का निशाना वो लोग होंगे जो उसे ढाएंगे(तोडेंगे)।
अहल ताइफ(ताइफ वालों) का इस्लाम क़बूल करना इस क़दर मुकम्मल था कि जल्द ही वो ख़ुद ही इन रियायतों से दस्तबरदार हो गए(खत्म कर दीया), जो उन के तलब करने(मांगने) पर रसूल अल्लाह स.व. ने उन्हें दी थीं और आप स.व. को उन के इलाक़े में उशर-ओ-ज़कात की वसूली के लिए अमला(लोग) मुक़र्रर(तय) करना पड़ा।