फेसबुक की ‘फ्री बेसिक्स’ स्कीम तनाज़ा में

क्या फेसबुक की मुतनाज़ा ‘फ्री बेसिक्स’ इंटरनेट सेवा को भारत में लागू किया जाना चाहिए? इस सवाल को लेकर इंटरनेट की दुनिया दो हिस्सों में बंट गई है। इस सोशल मीडिया कंपनी का दावा है कि वह मजूज़ा मन्सूबाबंदी के जरिए देश के मोबाइल सरफीन को बेसिक इंटरनेट सेवा मुफ्त मुहैया कराना चाहती है। इसके बारे में आपको अपने विचार रखने के लिए 7 जनवरी तक का वक्त है। आप trai@email.savetheinternet.in पर ईमेल करके अपने विचार बता सकते हैं। आइए जानते हैं कि मार्क ज़करबर्ग के क़ियादत वाली यह स्कीम आखिरकार किन वजहों से विवादों में आ गई है।

इस महीने ही ट्राई ने रिलांयस कम्युनिकेशंस से इस सेवा (फ्री बेसिक्स) को आर्ज़ी तौर पर मुल्तवी करने को कहा है। रिलायंस कम्युनिकेशंस भारत में फेसबुक की फ्री बेसिक्स पहल की हिस्सेदारी है। इस प्रोग्राम को 6 सूबों में इस साल फरवरी महीने में Internet.org के नाम से लॉन्च किया गया था। इसे पिछले महीने ही पूरे देश में लागू किया गया।

फेसबुक का कहना है कि ‘फ्री बेसिक्स’ स्कीम का मकसद डिहाती इलाकों के गरीब मोबाइल यूज़र को मुफ्त में इंटरनेट मुहैया कराने की है। फेसबुक की ‘फ्री बेसिक्स’ स्कीम में सरफिन शिक्षा, हेल्थकेयर व रोजगार जैसी सेवाएं अपने मोबाइल फोन पर उस ऐप के जरिए फ्री हासिल कर सकते हैं जो कि इस प्लेटफॉर्म के लिए खास तरीके से बनाया गया है।

मंगलवार को फेसबुक के सीईओ मार्क ज़करबर्ग ने ई-कॉमर्स साइट और ऐप पेटीएम के बानी विजय शेखर शर्मा को फ्री बेसिक्स के फायदे समझाने के लिए फोन पर बात की। पेटीएम के सीईओ पहले ही ट्विटर के जरिए फ्री बेसिक्स के प्रति अपने विरोध को जता चुके हैं। विजय शेखर शर्मा ‘सेव द इंटरनेट’ कैंपेन के अहम चेहरों में से एक है। इस कैंपेन का मकसद ‘फ्री बेसिक्स’ के खिलाफ विचार रखने वाले इंटरनेट यूज़र को मंच देना है।

.नाक़दिन ने कंपनी की इस पहल को नेट सेक्यूलरिज़्म (नेट न्यूट्रैलिटी) के उसूल की खिलाफ़वर्ज़ी बताई है। नेट न्यूट्रैलिटी का मतलब है कि कोई भी यूज़र इंटरनेट को बिना किसी रोक या कंट्रोल के इस्तेमाल कर सके। इसके साथ यह किसी एक खास कंपनी के ज़रिए संचालित ना हो। नाक़दिन का मानना है कि फेसबुक इस स्कीम का इस्तेमाल टॉर्जन हॉर्स की तरह इंटरनेट को कंट्रोल करने के लिए कर रही है।

‘फ्री बेसिक्स’ में सरफीन कुछ वेबसाइटें फ्री खोल सकते हैं लेकिन इसके साथ ही यह पहल यूट्यूब, गूगल या ट्विटर आदि बाकी वेबसाइटों की इजाज़त नहीं देती। यूज़र को दूसरे कंटेंट के लिए अदा करना होगा। आलोचकों ने इसे ‘डिफरेंशियल प्राइसिंग’ करार दिया है। इस वजह से इनोवेशन और नई स्टार्ट अप कंपनियों को बड़े कॉरपोरेट घरानों से प्रतिस्पर्धा करने के लिए बराबरी का मौका नहीं मिलेगा।