बदकारी की इस्लामी सज़ा

एक सहाबी ने रसूल अल्लाह ( स०अ०व०) से पूछा कि अल्लाह तआला के नज़दीक अकबर-ऊल-कबाइर (यानी सब से बड़ा गुनाह) कौन सा है?। हुज़ूर करीम स०अ०व० ने फ़रमाया अल्लाह तआला के साथ किसी को शरीक बनाना। सहाबी रसूल ने फिर पूछा इसके बाद कौन सा गुनाह बड़ा है?।

आप ( स्०अ०व०) ने फ़रमाया अपने बच्चे को इस ख़ौफ़ से मार डालना कि वो साथ में खाएगा। उन्होंने पूछा इसके बाद कौन सा गुनाह बड़ा है? आप ( स०अ०व०) ने इरशाद फ़रमाया अपने पड़ोसी की बीवी के साथ जमा करना। (बुख़ारी शरीफ़)

एक और रिवायत में है कि अगर किसी शख़्स ने शादीशुदा औरत से ज़ना किया तो अल्लाह तआला इस औरत के ख़ावंद को क़ियामत के दिन ज़ानी के आमाल पर क़ुदरत अता फ़रमाएगा कि वो जिस क़दर चाहे इसकी नेकियां ले ले। वाज़िह रहे कि उस दिन की होलनाकी और दहशत की वजह से थोड़ी नेकियों पर कोई राज़ी नहीं होगा, लिहाज़ा बदकार की बदकारी की वजह से इसकी सारी नेकियां दूसरे के पास चली जाएंगी।

ग़ौर फ़रमाएं कि वक़्ती लज़्ज़त के लिए अगर कोई शख़्स सारी उम्र की नेकियां किसी दूसरे को दे दे,ये कहाँ की अक़्लमंदी है?। मज़ीद ये कि बदकारी की ज़ुल्मत ईमान को इतना कमज़ोर कर देती है के सिवाए ख़ातमा का डर रहता है। हज़रात अहले कशफ़ का मुशाहिदा है कि ज़ना से तौबा ना करने वाला आख़िरी वक़्त में ईमान से महरूम हो जाता है।

मिसाल मशहूर है कि लातों का भूत बातों से नहीं मानता, लिहाज़ा दीन ए इस्लाम ने हदूद-ओ-क़यूद को तोड़ने वालों के लिए मुख़्तलिफ़ सज़ाएं मुतय्यन की हैं, ताहम सज़ा की नौईयत जुर्म के एतबार से है, यानी जैसा जुर्म वैसी सज़ा। शरा शरीफ़ में हर जुर्म की सज़ा इसकी मुनासबत से दी गई है, चुनांचे चोरी करने वाला शख़्स चूँकि दूसरे के माल पर हाथ उठाता है, लिहाज़ा दी ए इस्लाम में चोरी की सज़ा हाथ काटना है।

इसी तरह डाका ज़नी करने वाला शख़्स चूँ कि आला ऐलान दूसरे शख़्स का माल छीन लेता है, लिहाज़ा शरा शरीफ़ में इसकी सज़ा एक हाथ और एक पावं काटना है। किसी मुसलमान को ज़ख्मी करने या क़तल करने से मुताल्लिक़ इरशाद बारी तआला है कि जान के बदले में जान है और आँख के बदले में आँख। (अलमायदा।४५)

इसी तरह ज़ानी शख़्स किसी मुसलमान की इज़्ज़त-ओ-आबरू को लूट लेता है, लिहाज़ा इसकी सज़ा माल लौटने की निसबत ज़्यादा सख़्त होनी चाहीए। आम दस्तूर को सामने रखते हुए तो ज़हन इस तरफ़ जाता है कि ज़ानी की शर्मगाह काट देनी चाहीए, ना रहे बांस ना बजे बांसुरी, लेकिन इस सिलसिले में दो नकात क़ाबिल-ए-ग़ौर हैं।

अगर ऐसा कर दिया जाए तो एक तो हमेशा के लिए इंसानी नसल का इन्क़िता लाज़िम हो और दूसरा ये कि इस सज़ा का आम आदमी को इल्म ही नहीं होगा कि वो इबरत हासिल कर सके, इसी वजह से शरीयत ने इसकी सज़ा कोड़े तजवीज़ फ़रमाई है।

इरशाद बारी तआला है: ज़ना करने वाली औरत और ज़ना करने वाला मर्द इन दोनों में से हर एक को सौ कोड़े लगाओ और तुम लोगों को अल्लाह ताली के मुआमले में इन दोनों पर ज़रा (भी) रहम नहीं आना चाहीए, अगर तुम अल्लाह तआला और क़ियामत के दिन पर ईमान रखते हो। (सूरा नूर।२)

इससे साफ़ ज़ाहिर है कि ज़ना में लज़्ज़त सिर्फ़ ख़ास आज़ा को ही नहीं मिलती, बल्कि जिस्म के हर हिस्से में कैफ़-ओ-सुरूर की मस्ती छा जाती है और इंज़ाल के वक़्त तो रवां रवां इस लज़्ज़त को महसूस करता है, लिहाज़ा कोड़े लगने की सज़ा बहुत मुनासिब है, ताकि ज़ाहिरी तौर पर पूरे जिस्म को अज़ीयत पहुंचे।

याद रहे कि ये सज़ा ग़ैर शादीशुदा ज़ानी के लिए है। अगर बलफ़र्ज़ कोई शादीशुदा शख़्स ज़ना का मुर्तक़िब हो और क़ाज़ी के पास जाकर इक़रार करे या शरई गवाह भी पेश हो जाएं तो फिर इसकी सज़ा रज्म है। रज्म का तरीक़ा ये है कि मुजरिम का जुर्म साबित होने के बाद एक खुले मैदान में उसे ले जाया जाए, जहां क़ाज़ी, गवाह और मुसलमानों की एक बड़ी जमात मौजूद हो।

अगर एतराफ़-ए-जुर्म से फ़ैसला हुआ है तो पत्थर मारने में हाकिम इब्तिदा करेगा और अगर गवाही से जुर्म साबित हुआ है तो गवाह इब्तिदा करेंगे, फिर इसके बाद तमाम मुसलमान पत्थर मारेंगे, हती कि उस शख़्स की जान निकल जाए।

इसी तरह औरत को रज्म करने के लिए ज़मीन में इतना गहिरा गढ़ा खोदा जाए कि इसका निस्फ़ जिस्म इसमें छिप जाए, फिर इसे संगसार कर दिया जाए।

दौर-ए-हाज़िर में ग़ैर मुस्लिमों की तरफ़ से ये एतराज़ किया जा रहा है कि इस्लामी सज़ाएं वहशयाना हैं। बाअज़ असरी तालीम-ए-याफ़ता मगर फ़रंगी ज़हनीयत रखने वाले अफ़राद भी उनकी हाँ में हाँ मिलाते हैं, जबकि वो ये समझने से क़ासिर हैं कि रज्म की सज़ा कब दी जाती है।

इस्लाम ने बालिग़ शख़्स की शरई ज़रूरत पूरी करने के लिए निकाह को बहुत आसान बनाया है। हक़ महर के साथ दो शरई गवाहों की मौजूदगी में एजाब‍ ओ‍ कुबूल चंद मिनटों का काम है।

किसी मर्द-ओ-औरत के ज़ना को साबित करना आम तौर पर नामुमकिन नहीं तू इंतिहाई मुश्किल ज़रूर है। शरीयत ने पर्दे का हुक्म दे कर, मख़लूत महफ़िलों से मना करके और बिलाइजाज़त किसी घर में दाख़िला से रोक कर ज़ना के मवाक़े को ख़त्म कर दिया है। एक शख़्स मर्द-ओ-औरत को तन्हाई में बैठा देखे, या हंसते मुस्कुराते देखे, या बोस-ओ-कनार करता देखे, यहां तक कि ब्रहना हालत में एक दूसरे के साथ चिमटा हुआ भी देखे, तब भी उसे ज़बान रोक लगानी पड़ेगी।

उसे चाहीए कि दोनों को समझाए, ताकि वो आइन्दा ऐसी ग़लती का इर्तिकाब ना करें। अगर ये शख़्स इन पर ज़ना का इल्ज़ाम लगाएगा तो उसे चार गवाह पेश करने पड़ेंगे और अगर नहीं पेश कर सकेगा तो अस्सी कोड़े खाने पड़ेंगे और आइन्दा कभी उसकी गवाही कुबूल नहीं की जाएगी, बल्कि सारी उम्र की ज़िल्लत-ओ-रुसवाई हासिल होगी।

सवाल ये पैदा होता है कि क्या ये मुम्किन है कि जहां मर्द-ओ-औरत ज़ना करें, उन्हें चार आदमी इतना क़रीब से देखें कि देखने वालों को ये पता चल जाए कि दोनों के फ़ेअले बद में कोई कमी नहीं रही, जब कि हक़ीक़त ये है कि चंद फिट दूर से देखने वाले भी इस बात की गवाही नहीं दे सकते।

इतने सख़्त मरहलों से गुज़रने के बाद अगर चार अफ़राद खुल्लम खुल्ला मृतकबीन ज़ना को क़रीब से देख लेते हैं तो गोया गवाहों को गवाही का मौक़ा ख़ुद इन दोनों ने फ़राहम किया है। यक़ीनन ऐसे लोगों को इंसान नुमा जानवर कहा जा सकता है। अब अगर ऐसे लोगों को सज़ा ना दी जाए तो ये सारे मआशरे में बेहयाई और फ़ह्हाशी फैलाने का ज़रीया बनेंगे, लिहाज़ा इन्हें ऐसी सख़्त सज़ा दी जाए कि दूसरों को देख कर इबरत हासिल हो, ताकि आइन्दा बेहयाई की जुर्रत कोई ना कर सके।

लिहाज़ा शरीयत में ग़ैर शादीशुदा ज़ानी के लिए सौ कूड़े और शादीशुदा ज़ानी के लिए रज्म का हुक्म दिया गया है।