बदकारी पर उकसाने वाले उमूर का ख़ातमा ज़रूरी

बसाऔक़ात इंसान किसी चीज़ को बहुत ज़्यादा पसंद करता है, जब कि वही चीज़ इसके हक़ में हद दर्जा मज़र्रत रसाँ साबित होती है, जैसे ज़िंदगी के ज़ाहिरी हुस्न-ओ-जमाल, वक़्ती फ़वाइद और दुनिया की रंगीनियां और ऐश-ओ-आराम से मुतास्सिर होकर इंसान नफ़्स परस्ती का शिकार हो जाता है, जिसमें वक़्ती तलज़ज़-ओ-राहत तो ज़रूर मिल जाती है, लेकिन इसके बाद की ज़िंदगी ज़िल्लत-ओ-ख़ारी की नज़र हो जाती है और दर्दनाक अज़ाब इसका मुक़द्दर बन जाता है।

इसी तरह तस्वीर का दूसरा रुख़ ये है कि बाअज़ दफ़ा इंसान को कोई चीज़ हद दर्जा नापसंद होती है, लेकिन इसमें बेशुमार फ़वाइद पोशीदा होते हैं, जैसे राहे-हक़ में पेश आने वाले मसाइब-ओ-आज़माईशें, मशक़्क़तें और ईसार-ओ-क़ुर्बानी के जांगुदाज़ मराहिल से गुज़रने को एक आम इंसान पसंद नहीं करता, लेकिन जो साहिब ए ईमान होता है, वो इन कठिन हालात के बाद आने वाली राहत भरी ज़िंदगी से वाक़िफ़ होता है, इसके पाए सबात में लम्हा भर के लिए भी जुंबिश नहीं आती।

इंसान की इसी ख़ताए फ़िक्री का नतीजा है कि बाअज़ लोगों ने इस्लामी सज़ाओं को हक़ीक़त के तनाज़ुर में समझने की बजाय बेजा एतराज़ात करने में कोई कसर नहीं उठा रखी। मसलन इस्लाम ने ग़ैर शादीशुदा ज़ानी को बरसर-ए-आम सौ कोड़े मारने और शादीशुदा ज़ानी को संगसार करने का हुक्म दिया तो कई नाम निहाद हक़ूक़-ए-इंसानी की अलमबरदार तंज़ीमों और बिलख़सूस मग़रिबी ताक़तों ने बगै़र सोचे समझे इन सज़ाओं की शिद्दत से मुख़ालिफ़त की, बेजा एतराज़ात किए और मुसलमानों को दक़यानूसी ख़्यालात की हामिल क़ौम क़रार देने में अपनी तमाम तर तवानाईयां सर्फ़ कर दें। लेकिन आज जब दिल्ली जैसे शहर में इंसानियत सोज़ वाक़िया पेश आया तो मज़हब और क़ौम से बालातर होकर दुनिया के सबसे बड़े जमहूरी मुल्क में हर उस इंसान ने, जिस में रमक़ बराबर इंसानियत बाक़ी है, ज़ानियों के लिए वही सज़ा तजवीज़ कर रहा है, जो इस्लाम ने मुतय्यन की है।

इस्लामी सज़ाओं का बचशम ग़ाइर मुताला किया जाये तो पता चलता है कि इसमें किसी किस्म का इंतिक़ामी पहलू नहीं है, बल्कि इसका हर हुक्म हयात-ओ-ज़िंदगी की तरफ़ खुलने वाला एक दरीचा है। इस्लाम का मक़सद ये नहीं है कि इंसान को सज़ा दे, बल्कि वो उसे सिर्फ़ नाफ़रमानी और ज़लालत-ओ-गुमराही से बचाना चाहता है। चुनांचे अल्लाह तआला एक मुक़ाम पर इरशाद फ़रमाता है कि क्या करेगा अल्लाह तआला तुम्हें अज़ाब दे कर अगर तुम शुक्र करने लगो और ईमान ले आओ। (सूरा: अलनिसा- १४७)

अगर इंसान इस्लाम के आदिलाना दस्तूर हयात पर अमल पैरा रहेगा तो मआशरा से बुराईयों का ख़ातमा हो जाएगा और इंसान अमन-ओ-आश्ती और इज़्ज़त-ओ-वक़ार के साथ ज़िंदगी गुज़ार सकेगा और अगर इसके ख़िलाफ़ रविष इख़तियार करेगा तो दुनिया में फ़साद होगा। इस्लाम दुनिया को इसी फ़साद से बचाने के लिए सख़्त सज़ाएं तजवीज़ करता है, ताकि इंसान चैन-ओ-सुकून से ज़िंदगी गुज़ार सके। अगर आज हमारे मुल्क में ज़िना से मुताल्लिक़ इस्लाम की मुतय्यन कर्दा सज़ा का चलन आम होता तो संगदिल अफ़राद भी इस क़दर बे परवाह नून होते कि वो किसी ख़ातून की इज़्ज़त के साथ खुले आम खिलवाड़ करते।

मज़हब इस्लाम सख़्त सज़ाएं तजवीज़ करने से पहले इंसान के ज़मीर को झिंझोड़ता है और उसे गुनाहों से नफ़रत दिलाता है। चुनांचे शनीअ यानी ज़िना के मुताल्लिक़ इरशाद रब्बानी है कि बदकारी के क़रीब भी ना जाओ, बेशक ये बड़ी बेहयाई है और बहुत ही बुरा रास्ता है (सूरा बनीइसराईल।३२)

दीन इस्लाम ने ये नहीं कहा कि ज़िना मत करो, बल्कि फ़रमाया ज़िना के क़रीब भी ना जाओ। यानी ऐसे अस्बाब भी इख्तेयार ना करो, जो ज़िना की तरफ़ दावत देते हैं। आज मआशरे में कई उमूर ऐसे हैं, जो एक नेक सिफ़त इंसान को भी दरिन्दा सिफ़त बना देने के लिए काफ़ी हैं।

जहां हम ज़िना के मरतकबीन के लिए इस्लामी सज़ाओ की बहाली का मुतालिबा करते हैं, तो हम पर ये भी लाज़िम है कि हम इन उमूर के ख़िलाफ़ भी सदाए एहतिजाज बुलंद करें, जो इंसान को बदकारी के इर्तिकाब पर उभारते हैं। आज फेसबुक पर नौजवान नस्ल घंटों उर्यां तसावीर देखने, फ़हश गोई और ग़ैर महरमों के साथ महव गुफ़्तगु रहते है। हमें चाहीए कि हम सब से पहले इसके ख़िलाफ़ मुहिम चलाएं।

इसी तरह आइटम सांग के नाम पर नौजवान नस्ल को गुमराही और बेहयाई के दलदल में धंसा या जा रहा है। हिंदूस्तानी अवाम को चाहीए कि वो इस क़ौमी सेंसर बोर्ड की ग़ैर कारकर्दगी और फ़िल्म इंडस्ट्री के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाएं, जिनकी वजह से इस क़बीह फे़अल को बढ़ावा मिल रहा है। इसी तरह रियालिटी शो में भी नौजवान लड़के और लड़कीयों को मुख़र्रिब-ए-अख़लाक़ रक़्स करते हुए टेलीविज़न पर दिखाया जाता है, जिसका सारा ख़ानदान बैठ कर मुशाहिदा करता है, जिसकी वजह से मआशरे में बेहयाई फैल रही है।

आज के इस पर फ़ितन दौर में बिलख़सूस मुसलमानों पर लाज़िम है कि वो अपने आपको और अपनी नौजवान नस्ल को इन बुराईयों से बचाने की कोशिश करें। उन्हें दीन इस्लाम की तालीम से आरास्ता करें, ताकि मुसलमान इन जराइम से महफ़ूज़ रहें। अगर हम ऐसा करने में कामयाब हो गए तो यक़ीनन हम तब्लीग़ इस्लाम में नुमायां किरदार अदा कर सकते हैं, चूँकि दुनिया को आज बेहयाई से नजात चाहीए।

(अब्बू ज़ाहिद शाह सय्यद वहीद उल्लाह हुसैनी अल-क़ादरी अल मलतानी)