इस्लाम हकायक, सदाकतों और सच्चाइयों पर मुश्तमिल दीन है, तौहुमात व खुराफात, ख्याली व तसव्वुराती दुनिया में इसका कोई ताल्लुक नहीं। बदशगुनी व बदगुमानी और मुख्तलिफ चीजों की नहूसत के तसव्वुर व एतकाद की यह बिल्कुल नफी करता है।
इस्लाम दरअस्ल एक अकेले वाहिद और ऐसी कादिरे मुत्तलक जात पर यकीन व एतकाद की तालीम देता है जिसके तनहा कब्जा-ए-कुदरत और उसी की तनहा जात के साथ अच्छी व बुरी तकदीर वाबस्ता है। आदमी की अपनी तदबीरे यह महज असबाब के दर्जे में होती है। उनसे कुछ नहीं होता। सबका सब उस एक अकेले अल्लाह के करने से होता है। यही वह इस्लाम का बुनियादी अकीदा है जिससे शिर्क व कुक्र, खुराफात और ख्याली व तसव्वुराती दुनिया की बहुत सारी बद एतकादियों की जड़ कट जाती है।
आजकल की मुश्किल और दुश्वार गुजार जिंदगी में गैरों को तो छोडि़ए, जिनके मजहब की बुनियाद ही खुराफात पर होती है, देवमालाई कहानियां और अजीब व गरीब किस्से जिसका जुज लाजिम होते हैं, गैरों के साथ लम्बे अर्से तक रहन-सहन के नतीजे में खुद मुसलमानों में भी दिनों, महीनों, जगहों, चीजों और मुख्तलिफ रस्म व रिवाज की अदम अदाएगी की शक्ल में बेशुमार तौहुमात दाखिल हो गए हैं कि फलां दिन और फलां महीना मनहूस होता है, फलां रूख पर घर बनाने या सिम्त व रूख के एतबार से अच्छे या बुरे का एतकाद किया जाता है, मुख्तलिफ तकरीबात बल्कि बच्चे की पैदाइश से लेकर उसके शादी के बंधन में बंध जाने, उसके साहबे औलाद होने, फिर उसके उम्र के आखिरी मरहलों से गुजर कर उसके मौत के मुंह में चले जाने बल्कि उसके मरने के बाद उसके दफनाने बल्कि उसके बाद भी मुख्तलिफ रस्म व रिवाज का सिलसिला चलता रहता है, जिसकी अदम अदाएगी को नहूसत का बाइस करार दिया जाता है।
इन बेजा तसव्वुरात व ख्याली तौहुमात के जरिए जानी, माली, वक्ती हर तरह की कुर्बानियां देकर अपने आप को भारी बोझ तले दबा लिया जाता है। गरज कि लोगों ने इन तौहुमात व खुराफात की शक्ल में जिंदगी के मुख्तलिफ गोशों में इस कदर बखेड़े खड़ा कर दिए हैं कि शुमार से बाहर है।
जहां हमने एक अकेले, वाहिद व तनहा और कादिरे मुत्तलक जात को हकीकी माबूद व मसजूद और उसकी बारगाह की हाजिरी और उसके सामने सर झुकाना छोड़ दिया उसी की जात के साथ नफा-नुक्सान की वाबस्तगी के एतकाद को पसेपुश्त डाल दिया अजीब भूल भुलैयों में गुम हो गए, मुख्तलिफ पत्थरों, मूर्तियों, रस्मों व रिवाजों, मुख्तलिफ अवकात व घडि़यों और महीनों व दिनों से अपनी तकदीर वाबस्ता कर बैठे और अपनी मुनफअत को उनसे मंसूब कर दिया। एक अकेले अल्लाह को राजी करना कितना आसान था इससे बढ़कर बेजुबान, बेअक्ल जानवर, कुत्ते, बिल्लियों, तोतों, उल्लुओं और कौओं तक से अपने नफा-नुक्सान का एतकाद यह किस कदर नादानी और बचकानी और गई-गुजरी हुई हरकत हो सकती है।
अगर हम एक अकेले अल्लाह को हकीकी नफा-नुक्सान पहुंचाने वाला समझ कर उससे अपनी तकदीर का बनना व बिगड़ना वाबस्ता करते और उसी तनहा जात को अपनी मुकद्दस पेशानी के झुकाने के लिए चुन लेते तो आज का यह इंसान इस कदर हैरान व परेशान न होता कि हर छोटी बड़ी चीज के सामने सर झुकाने से बच जाता।
जाहिलियत के जमाने की बदशगुनियां :- जाहिलियत के जमाने में भी इस्लाम की आमद से पहले लोगों में मुख्तलिफ चीजों से शगुन लेने का रिवाज था। एक तरीका यह था कि खाना-ए-काबा में तीर रखे हुए होते जिनमें से कुछ पर ‘‘ला’’ लिखा होता यानी यह काम करना दुरूस्त नहीं और बाज में ‘नअम’ लिखा होता यानी यह काम करना दुरूस्त है।
वह उससे फाल निकालते और उसी के मुताबिक अमल करते या जब किसी काम से निकलना होता तो पेड़ पर बैठे हुए किसी परिंदे को उड़ा कर देखते कि यह जानवर किस सिम्त उड़ा अगर दांए जानिब को उड़ गया तो उसे मुबारक और साद जानते थे कि जिस काम के लिए हम निकले है वह काम हो जाएगा और अगर बाएं जानिब को उड़ गया तो उसको मनहूस और नामुबारक समझते।
नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इन सब चीजों की नफी फरमा दी और फरमाया कि ‘‘परिंदो को अपनी जगह बैठे रहने दो, उनको बिला वजह उड़ाकर फाल न लो।’’ (अबू दाऊद) इस हदीस में नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने मुख्तलिफ बदएतकाद और जाहिलियत के जमाने के मुख्तलिफ तौहुमात और बदशगुनियों को रद्द फरमा दिया है।
जाहिलियत के जमाने का एक तसव्वुर यह भी था कि बीमारियां एक दूसरे को मतादी होती है। एक दूसरे को मुंतकिल होती है। नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इस बद एतकाद की नफी करते हुए फरमाया कि तादिया कोई चीज नहीं है, इस तादिया के मुताल्लिक एक देहाती ने जब आप (सल0) से यह दरयाफ्त किया कि या रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)! ऊंट रेतीले इलाकों में बिल्कुल हिरनों की तरह तेज व तर्रार होते है कि कोई बीमारी उन्हें नहीं होती, उनमें एक खारिश जदा ऊंट आकर घुल मिल जाता है, वह सब को खरिशजदा कर देता है (यह तो तादिया हुआ) इस पर आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फरमाया- पहले ऊंट को खारिश कहां से हुई? यानी जब पहले ऊंट की खारिश अल्लाह की तरफ से है तो इन तमाम का खारिशजदा होना भी उसी की जानिब से है। (बुखारी)
उल्लू भी कोई चीज नहीं:- अहले अरब का एक अकीदा यह भी था कि मुरदार की हड्डियां जब बिल्कुल बोसीदा और रेजा रेजा हो जाती है तो वह उल्लू की शक्ल अख्तियार करके बाहर निकल आती हैं और जब तक कातिल से बदला नहीं लिया जाता उसके घर पर उसकी आमद व रफ्त बरकरार रहती है। जाहिलियत के जमाने की तरह मौजूदा दौर में भी उल्लू को मनहूस तसव्वुर किया जाता है। उसके घर पर बैठने को मुसीबत की आमद का एलान तसव्वुर किया जाता है। नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इन तमाम एतकादात और तौहुमात का इंकार कर दिया। इस तरह के बाज मिलते-जुलते एतकादात आज भी पाए जाते हैं कि शबे मेराज, शबे बरात और शबे कद्र और ईद वगैरह में रूहे अपने घर आती हैं। यह सब तौहुमात हैं।
आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने यह भी फरमाया कि भूत-प्रेत का कोई वजूद नहीं। यानी अहले अरब का यह तसव्वुर भी था कि जंगलों और बयाबानों में इंसान को भूत-प्रेत नजर आते हैं जो मुख्तलिफ शक्ले अख्तियार करते रहते हैं और लोगों को भटका देते हैं और उनको कभी कभी जान से भी मार देते हैं। इस तरह के एतकादात इस दौर में देहातों वगैरह में बहुत पाए जाते हैं। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इन सब खुराफात का इंकार कर दिया।
अहले अरब का यह अकीदा था कि वह बारिश को चांद के मुख्तलिफ बुर्ज या मनाजिल के साथ मंसूब करते थे कि चांद के फलां बुर्ज या मंजिल में होने से बारिश होती है या फलां सितारे के निकलने या डूबने से बारिश होती है यानी वह बारिश की निस्बत बजाए अल्लाह के इन सितारों की जानिब कर देते। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) इसका इंकार फरमा दिया। (अबू दाऊद) और एक रिवायत में है कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हुदैबिया के मौके पर एक बार फजिर की नमाज पढ़ाई। फजिर से पहले बारिश हो चुकी थी। जब आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) नमाज से फारिग हुए तो लोगों की जानिब मुतवज्जो हुए और फरमाया क्या तुम जानते हो कि तुम्हारे रब ने क्या फरमाया तो लोगो ने कहा अल्लाह और उसके रसूल ज्यादा जानते हैं। फरमाया कि अल्लाह तआला ने फरमाया- मेरे बंदो में से कुछ ने तो ईमान की हालत में सुबह की और कुछ ने कुफ्र व शिर्क की हालत में सुबह की।
जिन्होंने यह कहा कि अल्लाह के फजल व रहमत से बारिश हुई तो उन्होंने मुझ पर ईमान लाया और सितारों का उन्होंने इंकार किया और जिन्होंने यह कहा कि फलां सितारे के फलां बुर्ज में होेने से बारिश हुई तो उसने मेरा इंकार किया और सितारों के साथ अपना ईमान वाबस्ता किया। (मुस्लिम) सितारों और सैयारों की गर्दिश और उनका तुलूअ व गुरूब होना बारिश होने या न होने का एक जाहिरी सबब तो हो सकते हैं लेकिन मुअस्सिरे हकीकी हरगिज नहीं हो सकते। मुअस्सिरे हकीकी और कादिरे मुत्तलक महज अल्लाह की जात है। (मआरिफुल कुरआन)
मौजूदा दौर की बदशगुनियां व तौहुमात:- यह जाहिलियत के जमाने में बदफाली और तौहुम परस्ती का जिक्र था। अरब के जाहिलों की तरह आज कल भी नाम व निहाद मुसलमान तरह-तरह की बदगुमानियों और बदशगुनियों में मुब्तिला है, खासकर औरतों में इस किस्म की बातें मशहूर हैं। अगर कोई शख्स काम को निकला और बिल्ली या औरत सामने से गुजर गई या किसी को छींक आ गई तो समझते हैं कि काम नहीं होगा, जूती पर जूती चढ़ गई तो कहते हैं कि सफर दरपेश होगा, आंख फड़कने लगी तो फलां बात हो गई, घर पर कौए की चीख पुकार को मेहमान की आमद का ऐलान और उल्लू की आमद को नुक्सान का बाइस तसव्वुर किया जाता है।
हिचकियों के आने पर यह कहा जाता है कि करीब अजीज ने याद कर लिया। यह भी ख्याल किया जाता है कि हथेली में खारिश होने से माल मिलता है और तलवे में खारिश होने से सफर दरपेश होता है। इस तरह रोजमर्रा की जिंदगी में बेशुमार तसव्वुरात व ख्यालात हैं जो दिन-रात लोगों से सुनने में आते हैं। अजीब तौहुमपरस्ती की दुनिया है। हालांकि नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का साफ और वाजेह इरशाद है- बदशगुनी का लेना शिर्क है। (अबू दाऊद)
आज कल जानवरों से भी किस्मत के एहवाल बताए जाते हैं। बहुत से लोग लिफाफों में कागज भरे हुए किसी चालू रोड या गांव और देहातों में नजर आते हैं, तोता या मैना या कोई और चिडि़या पिंजरे में बंद रखते हैं और गुजरने वाले जाहिल उनसे पूछते हैं कि आइंदा हम किस हाल से गुजरेंगे? और हमारा फलां काम होगा या नहीं? इस पर जानवर रखने वाला आदमी परिंदे के मुंह में कोई दाना वगैरह देता है और वह परिंदा कोई भी लिफाफा खींच कर लाता है।
परिंदे वाला आदमी उस में से कागज निकाल कर पढ़ता है और दरयाफ्त करने वाले की किस्मत का फैसला सुनाता है या आजकल बहुत सारे रिसाले और मैगजीन निकलते हैं। जिसमें तमाम हुरूफ खानों में लिखे हुए होते हैं। जिस हरफ से नाम शुरू होता है नीचे तमाम हुरूफ के एतबार से उनके एहवाले जिंदगी अच्छी या बुरी तकदीर लिखी होती है।
उसको पढ़कर एहवाल और आइंदा पेश आने वाली खुशी व मसर्रत की घडि़यां या मुसीबत के लम्हों को मालूम किया जाता है या खाने में मुख्तलिफ हुरूफ या सितारों के नाम लिखे होते हैं। आंख बंद करके उनपर उंगली रखने को कहा जाता है। जिसपर उंगली पड़ती है उसके एतबार से नीचे उस हरफ के सामने लिखी हुई पेशनगुइयां पढ़कर अपने एहवाल मालूम करते हैं। यह सब सरासर जिहालत और गुमराही है बल्कि आज के मशीनी दौर में किस्मत का हाल जानने के लिए मशीन भी तैयार हो गई है।
बस अड्डों, रेलवे स्टेशनों पर देखा है कि दिल का हाल बताने वाली कोई मशीन होती है जो इंसानों के दिल का हाल बता देती है। लोग कान में लगाने वाले आले के जरिए इस मशीन के वास्ते से अपने दिल का हाल सुनते हैं और वहां लोगों की भीड़ और एक तांता लगा होता है।
याद रखिए, गैब को सिवाए अल्लाह के कोई नहीं जानता। खुद तोता मैना लेकर बैठने वाले को पता नहीं होता कि वह कल क्या करेगा? और अगर उसको किस्मत का इल्म होता तो उस चालू रोड पर बैठकर यह चालू काम करता हुआ नहीं होता। कोई शख्स नहीं जानता वह कल क्या करेगा? और न एक दूसरे को इस बारे में कोई इल्म है। अल्लाह तआला का इरशाद है,‘‘ कोई नफ्स नहीं जानता कि कल को क्या करेगा।’’ और अल्लाह का इरशाद है-‘‘ ऐ नबी! आप फरमा दीजिए कि जो लोग आसमान व जमीन में है वह गैब को नहीं जानते गैब को सिर्फ अल्लाह ही जानता है।’ यह अजीब बात है कि आदमी तो खुद अपना हाल न जाने और गैर आकिल जानवर को पता चल जाए कि उसकी किस्मत में क्या है।
एक हदीस में नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का इरशाद है कि जो शख्स किसी ऐसे आदमी के पास गया जो गैब की बातें बताता हो फिर उससे कुछ बात पूछ ली तो उसकी नमाज चालीस दिन तक कुबूल न होगी। एक और हदीस में इरशाद है कि जो शख्स किसी ऐसे शख्स के पास गया जो गैब की खबर बताता हो और उसके गैब की तस्दीक कर दी तो उस चीज से बरी हो गया जो आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर नाजिल हुई। (अबू दाऊद)
सफर के महीने के नहूसत का तसव्वुर
बाज लोग सफर के महीने के ताल्लुक से यह नजरिया और अकीदा रखते हैं कि इस महीने में मुसीबतें और बलाएं नाजिल होती हैं। इस्लाम से पहले जाहिलियत के जमाने में भी लोग मुख्तलिफ किस्म के तौहुमात और वसवसों और गलत अकायद में घिरे हुए थे।
नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने सफर के महीने की नहूसत का इंकार करते हुए फरमाया तेरह तीजी की कोई हकीकत नहीं। अरब खासकर सफर के इब्तिदाई तेरह दिनों और आमतौर पर पूरे महीने को मंहूस समझते थे।
जाहिलियत के जमाने में मसलन इसमें अक्द निकाह, पैगामे निकाह और सफर करने को मंहूस और नामुबारक और नुक्सान का बाइस समझा जाता था। नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने जाहिलियत के जमाने के इस एतकाद की पुरजोर तरदीद फरमाई कि सफर में नहूसत का एतकाद सिरे से गलत है।
हकीकत यह है कि दिन महीना या तारीख मंहूस नहीं होते कि फलां महीने में, फलां तारीख में, फलां दिन में शादी के इनअकाद को बाबरकत तसव्वुर किया जाए और बाज दिनों जैसा कि मशहूर है कि तीन तेरह, नौ, अट्ठारह यह मनहूस दिन तसव्वुर किए जाते हैं बल्कि इस ताबीर ही को बर्बादी और तबाही के मायनी में लिया जाता है।
यह सब खुराफात और खुद साख्ता और बनावटी बातें हैं। जमाने और दिनों में नहूसत नहीं होती। नहूसत बंदो के आमाल के साथ वाबस्ता है। जिस वक्त या दिन या लम्हा को बंदे ने अल्लाह की याद और उसकी इबादत में गुजरा वह वक्त तो उसके हक में मुबारक है और जिस वक्त को बदअमली, गुनाहों और अल्लाह की हुक्म उदूलियों में गुजार दिया तो वह वक्त उसके लिए मनहूस है, हकीकत में मुबारक इबादात है और मनहूस मासियात है।
गरज कि मनहूस हमारे बुरे आमाल और गैर इस्लामी अकायद गरज कि अगर किसी मुसलमान को कोई ऐसी चीज पेश आ जाए जिससे बिला वजह जेहन में बदख्याली और बदफाली का तसव्वुर आता हो तो जिस काम से निकला है उससे न रूके और यह दुआ पढ़े – (तर्जुमा) ऐ अल्लाह! अच्छाइयों को तेरे सिवा कोई नहीं लाता और बुरी चीजों को तेरे सिवा कोई दूर नहीं करता और गुनाह से बचने और नेकी करने की ताकत सिर्फ अल्लाह ही से मिलती है।
बहरहाल मुसलमानों को चाहिए कि टोना, टोटका, बदफाली, बदशगुनी और रस्म व रिवाज से सख्ती से परहेज करे वरना खुद यह चीजें उसकी आखिरत में तबाही और उसके अल्लाह से ताल्लुक को कमजोर कर ही देंगी। बल्कि इसका नकद अजाब यह होगा कि वह हर वक्त और हर दम पर बदफाली बदशगुनी और नहूसत के तसव्वुर से जेहनी कोफ्त व अजीयत में मुब्तिला रहेगा और बेजा अपने आप को परेशानियों का महल बनाएगा। (मुफ्ती रफीउद्दीन हनीफ कासमी)
——————-बशुक्रिया: जदीद मरकज़