नुमाइंदा ख़ुसूसी,बस हो या और कोई सवारी ये इंसान की सहूलत के लिए फ़राहम की गई है । बाअज़ लोग सवारीयों का इतना ग़लत इस्तिमाल करते हैं कि बस का ये सफ़र उन की ज़िंदगी का आख़िरी सफ़र बन जाता है या कम अज़ कम बद एहतियाती की वजह से माज़ूर होने की हद तक ज़ख़मी हो जाते हैं ।
ज़ेर नज़र तसावीर पर ग़ौर कीजिए कि किस तरह हमारे नौजवान बस में जगह ना होने के बावजूद इस तरह सफ़र करने की कोशिश कर रहे हैं । यूं भी बसों में पादान पर खड़े हो कर सफ़र करना हमारे नौजवानों में आम होगया है । ग़ौर कीजिए कि कितना ख़तरा मोल कर ये बच्चे सफ़र कर रहे हैं । उन्हें कोई भी हादिसा होसकता है अगर कोई बस गुज़र जाय इस में सवार होने का मौक़ा ना मिले तो क्यों ना सब्र से काम लेते हुए दूसरी बस का इंतिज़ार नहीं किया जा सकता । ऐसा करने के बजाय अपनी जान को जोखिम में डाल कर सफ़र करना सरासर अल्लाह की दी हुई सब से बड़ी नेअमत ज़िंदगी से मना मोड़ने के बराबर है वालदैन अपने बच्चों को स्कूल , कॉलिजस इस लिए नहीं भिजवातॆ कि वो बसों में इस क़दर ख़तरनाक सफ़र करें ।
ये बच्चे अपनी जान के दुश्मन बने हुए हैं । बुज़ुर्गों और सरपरस्तों का काम है कि बच्चों को एहतियात से सफ़र करने की ताकीद करें । उन्हें ये समझाएं कि इन की ज़िंदगी ख़ुद उन के और सारे ख़ानदान के लिए कितनी क़ीमती चीज़ है । असल में मौजूदा नसल में संजीदगी की कमी होती जा रही है । उन्हें अपनी ज़िम्मेदारीयों का एहसास दिलाया जाना चाहीए । उन्हें ये तरग़ीब दी जानी चाहीए कि ज़िंदगी सिर्फ एक मर्तबा मिलती है किसी भी मज़हब ने जान को ख़तरा में डालने की तालीम नहीं दी है । अगर इस नई नसल की ज़हनी तर्बीयत की जाय तो हो सकता है कि इन में शऊर बेदार हो और वो अपनी ज़िंदगी के साथ साथ माँ बाप की तमनाऔ और आरिज़ों का भी एहतिमाम करने लगेंगे । वर्ना हलाक के सिवा और कुछ हासिल होने वाला नहीं है