कहते हैं मजहब कोई भी हो, उसकी पहचान होती है उसके मानने वाले लोगों से और उनके कामों से। मजहब के लोग मजहब का गहना होते हैं, उन्हीं के किए कामों से ही मजहब और उसकी तालीम की पहचान होती है। ऐसी ही एक मिसाल है बादशाह मोहम्मद पांचवें की जिन्होंने अपने राज के दौरान अपने देश के 250000 यहूदियों को न सिर्फ उनके ऊपर हो रहे जुल्म से बचाया बल्कि इन यहूदियों को नाज़ियों की तरफ से चलाये गए यहूदिओं का खात्मा करने की मुहिम की बलि चढ़ने से भी बचा लिया।
मोहम्मद का जन्म 1909 में हुआ था जिसके 20 साल बाद 1927 में उनको मोरक्को का सुलतान बनाया गया। उस वक़्त मोरक्को फ्रेंच लोगों को के लिए एक पनाहगाह का काम करता था। ऐसे में जिस वक़्त जर्मनी ने फ्रांस पर 1940 में हमला बोला और देश में सांझे राज का ऐलान कर दिया उस वक़्त उत्तरी अफ्रीका के इस देश में भी नाज़ियों का राज चलने लगा। नाज़ियों का राज लागू होते ही उन्होंने यहूदियों को बढ़िया काम करने वाली जगहों और बढ़िया स्कूलों में पढ़ने पर रोक लगा दी और यहूदियों की बस्ती बना दी गयी।
लेकिन सुल्तान मुहम्मद ने ऐसे काले कानूनों को लागू करने से मना कर दिया और नाज़ियों से कहा कि इस देश में यहूदी नहीं रहते इस मुल्क में रहने वाला हर शक्श देश का बाशिंदा है। चौतरफा दवाब के बावजूद सुल्तान ने यहूदियों की हिफाज़त करने के लिए खड़े रहने का फैसला किया 1941 में सुल्तान मुहम्मद ने अरबी देशों में यहूदी विरोधी की बढ़ते वाक्यों की वजह से देश में सख्त कानून लागू कर दिया जिसमे कहा गया की यहूदियों को किसी भी तरह से तंग नहीं किया जाना चाहिए। सुलतान ने यह पक्का किया की यहूदियों की हर हाल में हिफाज़त की जाए। आखिर 1961 में 51 साल की उम्र में सुलतान मोहम्मद की मौत हो गई।
उसके इस काम के लिए उनके मरने के बाद उन्हें इंस्टिट्यूट ऑफ़ वर्ल्ड ज्यूइश स्टडीज़ की तरफ से रबी हेसचेल अवार्ड से नवाज़ा गया।