बिखरते टूटते लम्हों को अपना हमसफर जाना
था इस राह में आखिर हमें खुद भी बिखर जाना
हवा के दोश पे बादल के टुकड़े की तरह हम हैं
किसी झोंके से पूछेंगे कि है हमको किधर जाना
मेरे जलते हुए घर की निशानी बस यही होगी
जहाँ इस शहर में रौशनी देखो ठहर जाना
पासे ज़ुलमत कोई सूरत हमारा मुन्तज़िर होगा
इसी एक वहम को हम ने चिराग़े रह गुज़र जाना
दयारे खमोशी से कोई रह रहकर बुलाता है
हमें मखमूर एक दिन है इसी आवाज़ पर जाना
मख़्मूर सईदी 31 दिसम्बर 1938 को राजस्थान के टोंक में पैदा हुए। शायर, सहाफी, तर्जुमानिगार समेत कई शोबों में काम किया, लेकिन उर्दू शायरी में उनका बड़ा नाम रहा। सबरवग, आवाज़ के जिस्म, गुफ्तनी, दीवारो दर के दरमियान और दीगर लगभग एक दर्जन किताबों के मुसन्निफ 2 मार्च 2010 को चल बसे।