ख़ामोश हो क्यों दाद-ए-जफ़ा क्यों नहीं देते
बिस्मिल हो तो क़ातिल को दुआ क्यों नहीं देते
वहशत का सबब रोहज़ने ज़िन्दाँ तो नहीं है
महरो महो अंजुम को बुझा क्यों नहीं देते
क्या बीत गयी अब कि ‘फ़राज़’ अहल-ए-चमन पर
यारान-ए-क़फ़स मुझको सदा क्यों नहीं देते
अहमद फ़राज़