उर्दू में अफसाना लिखने की शुरुआत लाहौर-दिल्ली या लखनऊ से नहीं, बल्कि बिहार से हुई थी। 1004 में बिहार से इसकी शुरुआत हुई थी। ये बातें मशहूर उर्दू अफसाने मुंसिफ़ अब्दुल समद ने ‘बिहार में अफसाने की रिवायत : फसाने से अफसाने तक का सफर’ पर मुनक्कीद कोन्फ्रेंस में कहीं। उन्होंने कहा कि पहली खातून उर्दू किस्सा गौ बिहार की ही थी। कमाल हैदरी और अहमद यूसुफ जैसे जाने माने उर्दू किस्सा गौ बिहार के ही थे।
बिहार के अनवर खान, हुसैनुल हक, अली इमाम, मुशर्रफ आलम जैकी, अनिल सफी और मुश्ताक मंजूरी जैसे अफसाना निगार भी बिहार के ही थे। उन्होंने कुबूल किया कि नॉवेल लिखना अफसाना लिखने से कहीं मुश्किल है। नॉवेल लिखना कोई बच्चों का खेल नहीं है। मैंने आठ नॉवेल लिखे और उसके लिए अच्छा-खासा वक्त दिया। वक़्त दे कर लिखे गये नॉवेलों में रूहें समायी रहती हैं। मंटू की अफसाने और नॉवेल आज भी इसी लिए याद किये जाते हैं।
शफी जावेद ने कहा कि अफसाना मुश्किल फन है। इसमें लकीर से शब्बीर बनाना पड़ता है। एक तिल्ली से पूरा रंग-महल रौशन हो जाता है। अफसोस इस बात का है कि शुरू-शुरू में अफसानों को कमतर करार दिया गया। इसे कायम करने के लिए बड़ी लड़ाइयां हुईं। आज सरकारी सतह पर इसे एजाज यूं ही नहीं मिला है। उर्दू में लिखी गयी ‘नदीम’, अलपेंच’, ‘ रौशनाई की कस्तियां’, ‘चूहे की मौत’, ‘छापे की वापसी’, ‘आग के अंदर राख’ ‘अनहोनी कबूतर’, ‘बक्सों से तबाह आदमी’ और ‘पोस्टर’ जैसी कहानियां आवाम को याद है। उर्दू कहानियों को जन-जन की कहानी बनाने में सफी अजीमाबादी, अनवर अजीज, वली मसजिद, कलाम हैदरी, अब्दुल शमद और जाकिया ने बड़ी मेहनत की। इनकी लिखी अफसाने बिहार से पाकिस्तान तक मक़बूल हुई।
शमोएल अहमद ने कहा कि उर्दू को किसी इलाक़े खास के दरमियान नहीं बांटा जा सकता। उर्दू अफसाओं में बिहार की कल्चर, छठ के गीत, उगते-डूबते सूरज, लिट्टी-चोखा, रणवीर सेना , लाल सेना, नक्सली वारदात, भागलपुर के दंगों और जातीय तशद्दुद तक की बहस हुई है। 1935 से उर्दू अफसानों का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह आज औज़ पर पहुंच चुका है।