बीफ़ का इस्तेमाल: सिर्फ मुसलमानों पर आरोप क्यों?

देश में हर समस्या को मुसलमानों से जोड़ना संघ परिवार और आक्रामक सांप्रदायिक तत्वों की आदत बन चुकी है। मुसलमानों को निशाना बनाकर अपने हितों की पूर्ति करने में वह सफल भी दिखाई दे रहे हैं।

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चाहे समान सिविल कोड का मामला हो या फिर गोमांस के इस्तेमाल का विवाद, इन दोनों में भी मुसलमान ही साम्प्रदायिक ताकतों के निशाने पर हैं। पिछले कुछ वर्षों में देश में जिस तरीके से आक्रामक सांप्रदायिकता की राजनीति ने अपनी जड़ों को मजबूत किया है इसमें मुसलमानों की रणनीति का अभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।

अक्सर देखा गया है कि जब कभी समान सिविल कोड या फिर गोमांस का मुद्दा उठाया गया और मुसलमानों को निशाना बनाने की कोशिश की गई तो मुसलमान इस साजिश का शिकार हो गए जिसके परिणाम में विरोधी ताकतों को सफलता प्राप्त हो रही है। ऐसा नहीं है कि समान सिविल कोड और गोमांस का उपयोग जैसे मामले केवल मुस्लिम अल्पसंख्यकों का मुद्दा है।

देश में मुसलमानों के अलावा कई अन्य क्षेत्रों और खासकर आदिवासी लोग समान सिविल कोड का कभी समर्थन नहीं करते। पूर्वोत्तर राज्यों में जहां आदिवासी हावी हैं, वहां भाजपा समान सिविल कोड के बजाय सभी आदिवासी परंपराओं और नियमों की विशिष्टता बनाए रखने का वादा कर रही है।

ठीक इसी तरह पूर्वोत्तर राज्यों में भाजपा ने खुलेआम यह वादा किया है कि वहां उत्तर प्रदेश की तरह गोमांस पर प्रतिबंध नहीं होगा। दिलचस्प बात तो यह है कि केरल जैसे राज्य में मलापुरम लोकसभा क्षेत्र के उपचुनाव में भाजपा के उम्मीदवार ने खुलेआम जनता से यह वादा किया है कि अगर उन्हें चुना जाएगा तो वह स्वस्थ मांस आपूर्ति को सुनिश्चित करेंगे। इस तरह से सांप्रदायिक शक्तियों और उनके राजनीतिक संगठन भाजपा का दोहरा मापदंड उजागर होता है।

उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात और कुछ अन्य भाजपा शासित राज्यों में पिछले दिनों बड़े पशु तस्करी के नाम पर मुस्लिमों पर जिस तरह से अत्याचार किए गए उसकी जितनी भी निंदा की जाए कम है।

राजस्थान में तो एक बुजुर्ग व्यक्ति को बदमाशों ने मार मार कर हत्या कर दी। इस तरह देश में गोमांस के साथ ही मुसलमानों के नाम को जोड़ने की साजिश की जा रही है, हालांकि वास्तविकता इसके विपरीत है।

मुसलमानों से ज्यादा खुद हिंदुओं में मांसाहार और विशेषकर गोमांस उपयोग की प्रवृत्ति अधिक है। आज भी हर राज्य के आदिवासी क्षेत्रों में त्योहारों के अवसर पर बड़े जानवर की बलि दी जाती है। देश के कई नामी हस्तियों ने भी खुलेआम इस बात को स्वीकार किया है कि वे गोमांस का उपयोग करते हैं।

हाल ही में तेलंगाना राज्य के एक कलेक्टर ने जनता को गोमांस उपयोग का सुझाव यह कहते हुए दिया कि इसके उपयोग से बीमारियों से लड़ने की क्षमता कहीं उत्तम मौजूद है। कलेक्टर के इस सलाह पर साम्प्रदायिक शक्तियों ने विरोध जरूर किया लेकिन जिस क्षेत्र में यह सुझाव दिया गया वहाँ गोमांस खाने वाले काफी संख्या में हैं जोकि मुसलमानों नहीं है।

गोमांस के मुद्दे पर देश में फैलती नफरत की राजनीति से निपटने के लिए अकाबरीन मिल्लत की राय में मुसलमानों को उत्साह के बजाय होश से काम लेना चाहिए ताकि इस्लाम विरोधी और मुसलमान विरोधी साजिशों को नाकाम बनाया जा सके।

अकाबरीन को एहसास है कि मुसलमान इस समस्या पर उग्र होने के बजाय अगर रणनीति के साथ काम लें तो देश के दलित, ईसाई और पिछड़े हिंदू समूह खुद गोमांस के पक्ष में खड़े होंगे और वे सांप्रदायिक शक्तियों का सामना करने के लिए तैयार हो जाएंगे।

मौजूदा परिस्थितियों में सभी ऐसे क्षेत्रों की लड़ाई केवल मुसलमान लड़ रहे हैं हालांकि उपभोग करने वालों की दर मुसलमानों से ज्यादा गैर मुस्लिमों में है।

साम्प्रदायिक शक्तियां चाहती भी यही हैं कि मुसलमानों को किसी तरह उग्र करते हुए अपने लक्ष्य में सफलता प्राप्त कर लें। भारत के सभी राज्यों में मांस के उपभोग की समीक्षा करें तो अनुमान होगा कि हर राज्य में नॉन वेजिटेरियन जनता की संख्या वेजिटेरियन से कहीं अधिक है।

उत्तर प्रदेश जहां योगी आदित्यनाथ की भाजपा सरकार ने अवैध बूचडखाने के नाम पर मुसलमानों को निशाना बनाने का आंदोलन शुरू किया है वहाँ 47 प्रतिशत जनता वेजिटेरियन हैं जबकि नॉन वेजिटेरियन यानी मांस खाने वालों की आबादी 53 प्रतिशत है।

राजस्थान जहां दो दिन पहले एक मुसलमान को जानवर हस्तांतरण पर हत्या कर दी गई केवल वहाँ 75 प्रतिशत आबादी वेजिटेरियन है जबकि 25 प्रतिशत लोग नॉन वेजेटीरियन हैं।

तमिलनाडु में 98 प्रतिशत जनता मांस का उपयोग करते हैं, जबकि आंध्र प्रदेश में 98, तेलंगाना में 99, कर्नाटक में 79 और केरल में 97 प्रतिशत आबादी नॉन वेजिटेरियन है।

सियासत की रिपोर्ट