बुढ़ापे की हिर्स?

हज़रत अनस रज़ी० से रिवायत है कि रसूल करीम स०अ०व० ने फ़रमाया इंसान (ख़ुद तो) बूढ़ा हो जाता है, मगर इस में दो चीज़ें जवान और क़वी हो जाती हैं, एक तो माल (जमा करने) की हिर्स (और उस को ख़र्च ना करने की आदत) और दूसरे दराज़ी उम्र की आरज़ू। (बुख़ारी-ओ-मुस्लिम)

ये हक़ीक़त है कि इंसान ख़ाह कितना ही बूढ़ा हो जाये, इसके मिज़ाज-ओ-अत्वार और उसकी जिबलत पर मज़कूरा बाला दोनों ख़सलतों की गिरफ्त ढीली नहीं होती, बल्कि उम्र के साथ साथ इन दोनों चीज़ों का ज़ोर भी बढ़ता रहता है और ब ज़ाहिर इसकी वजह ये है कि इंसान का नफ्स (अगर इल्म-ओ-अमल और रियाज़त-ओ-मुजाहिदा के ज़रीया महफ़ूज़-ओ-पाकीज़ा ना हो जाये तो वो) अपनी ख़ाहिशात और अपने जज़बात की गिरफ्त में रहता है और ज़ाहिर है कि ख़ाहिशात-ओ-जज़बात की तकमील, माल और उम्र के बगै़र नहीं हो सकती।

दूसरा ये कि इंसान जब बुढ़ापे की मंज़िल में पहुंच जाता है तो इस में इन नफ़सानी ख़ाहिशात-ओ-जज़बात का वजूद तो ज्यों का त्यों क़ायम रहता है, लेकिन वो क़ुव्वत अक़लीया को जो क़ुव्वत शहवानीया को क़ाबू में रखती है, कमज़ोर हो जाती है, इसलिए कि वो इस (क़ुव्वत शहवानीया) के मुहर्रिकात को दफ़ा नहीं कर सकती।

इसी ऐतबार से इन दोनों चीज़ों को जवान और क़वी से ताबीर किया गया है।
हज़रत अबूहुरैरा रज़ी० से रिवायत है कि नबी करीम स०अ०व० ने फ़रमाया बूढ़े का दिल हमेशा दो बातों में जवान (क़वी) रहता है, एक तो दुनिया की मुहब्बत में और दूसरे आरज़ू की दराज़ी में। (और ये दोनों ही बातें मुज़िर हैं, क्योंकि दुनिया की मुहब्बत मौत को अज़ीज़ नहीं रखने देती और आरज़ू दराज़ी उम्र, ताख़ीर अमल और कोताही अमल की मुक़तज़ी होती है)। (बुख़ारी-ओ-मुस्लिम)