भारत में उच्च शिक्षा प्राप्त युवा सबसे ज्यादा बेरोज़गार: रिपोर्ट

भारत में बेरोज़गारी की दर लगातार बढ़ रही है. एक रिपोर्ट के अनुसार, कई सालों तक बेरोज़गारी दर दो या तीन प्रतिशत के आसपास रहने के बाद साल 2015 में पांच प्रतिशत पर पहुंच गई. इतना ही नहीं युवाओं में बेरोज़गारी की दर 16 प्रतिशत है.

अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के सतत रोज़गार केंद्र से इस अध्ययन से जुड़ी रिपार्ट जारी की गई है. इस अध्ययन का नाम स्टेट आॅफ वर्किंग इंडिया, 2018 (एसडब्ल्यूआई) है.

हफिंग्टन पोस्ट की रिपोर्ट के अनुसार, रिपोर्ट में कहा गया है कि 2015 में पांच प्रतिशत की बेरोज़गारी दर थी, जो पिछले 20 वर्षों में सबसे ज़्यादा देखी गई है. इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि नौकरियों की कमी निराशाजनक वेतनमान से बढ़ी है. 82 प्रतिशत पुरुष और 92 प्रतिशत महिलाएं प्रति माह 10,000 रुपये से भी कम कमा पा रहे हैं.

रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में वृद्धि के परिणामस्वरूप रोज़गार में वृद्धि नहीं हुई है. अध्ययन में कहा गया है कि जीडीपी में 10% की वृद्धि के परिणामस्वरूप रोज़गार में 1 प्रतिशत से भी कम वृद्धि हुई है.

शोधकर्ताओं, नीति निर्माताओं, पत्रकारों और नागरिक समाज कार्यकर्ताओं के एक समूह द्वारा लिखी गई यह रिपोर्ट, मुख्य रूप से राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) और श्रम विभाग के रोज़गार-बेरोज़गारी सर्वेक्षण (ईयूएस) से डेटा पर तैयार किया है. ये सर्वे आखिरी बार 2015-16 में हुआ था.

रिपोर्ट में बढ़ती बेरोज़गारी भारत के लिए एक नई समस्या बताया गया है.

स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया की रिपोर्ट में बताया गया है, ‘पारंपरिक रूप से भारत में बेरोज़गारी नहीं बल्कि अंडर एंप्लॉयमेंट और कम मजदूरी समस्या थी. उच्च शिक्षा प्राप्त और युवाओं में बेरोज़गारी 16 प्रतिशत तक पहुंच गई है. बेरोज़गारी पूरे देश में हैं, लेकिन ज़्यादा प्रभावित उत्तरी राज्य हैं.

अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के सहायक प्रोफेसर अमित बसोले ने कहा कि भारत के नौकरी बाजार की प्रकृति बदल गई है क्योंकि बाजार में अब अधिक शिक्षित लोग आ चुके हैं.

अमित ने आगे कहा, ‘पिछले दशक में, हमने एक विशाल शैक्षणिक लाभांश देखा है. जैसे कि स्कूल नामांकन और समापन दर बढ़ी है, श्रम बाजार बदल गया है. विभिन्न डिग्रीयों के अनुरूप रोज़गार पैदा नहीं हुआ.’

एक और महत्वपूर्ण प्रवृत्ति जो रिपोर्ट बताती है, वह कम आमदनी की समस्या है. राष्ट्रीय स्तर पर, 67 प्रतिशत परिवारों ने 2015 में 10,000 रुपये तक की मासिक आमदनी की है. इसकी तुलना में, सातवीं केंद्रीय वेतन आयोग (सीपीसी) द्वारा अनुशंसित न्यूनतम वेतन 18,000 रुपये प्रति माह है. इससे पता चलता है कि भारत एक बड़े तबके को मजदूरी के रूप में उचित भुगतान नहीं किया जा रहा है.

अध्ययन के अनुसार, चिंताजनक बात यह है कि संगठित विनिर्माण क्षेत्र में भी 90 प्रतिशत उद्योग न्यूनतम वेतन के नीचे मजदूरी का भुगतान करते हैं. असंगठित क्षेत्र में स्थिति और भी खराब है. तीन दशकों में संगठित क्षेत्र की उत्पादक कंपनियों में श्रमिकों की उत्पादकता छह प्रतिशत बढ़ी है, लेकिन उनके वेतन में महज 1.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई है.