नुमाइंदा ख़ुसूसी तस्वीर बाअज़ वक़्त अलफ़ाज़-ओ-तहरीर से ज़्यादा मतलब ब्यान करती है क्योंकि तसावीरसच्च कहती हैं। ज़ेर नज़र तस्वीर में आप एक मासूम बच्ची अपनी ग़रीब और बेसहारा-ओ-माज़ूर माँ जिस की गोद में एक लखत जिगर भी दिखाई दे रहा है, गाड़ी को ढकेलते हुए देख सकते हैं।ये मंज़र टोली चौकी चौराहा पर देखा गया है। ये ख़ातून ख़ुद अपने लिए और उन मासूमों की ख़ातिर इस पर हुजूम चौराहे पर भीक मांगती है।
जब ये तस्वीर ली जा रही थी तब बच्ची पर नींद का ग़लबा था। वो बार बार अपनी आँखें बंद कररही थी लेकिन पेट की आग बुझाने के लिए मजबूरन उसे गाड़ी ढकेलना पड़ रहा था। हम ने इस सूरत-ए-हाल का ये मतलब लिया कि शायद रोज़ी रोटी कमाने की ख़ातिर ममता को भी कुछ देर के लिए सही रुक जाना पड़ता है, वर्ना कौनसी माँ होगी जो अपनी बेटी की आँखों में नींद देख कर भी उसे अपनी गोद में मीठी नींद ना सोला।
मजबूरियां इंसान से कयां नहीं करवाती हैं। इस माज़ूर माँ को जब ये मश्वरा दिया गया कि कुछ देर केलिए बच्ची को सोने का मौक़ा दी, तो इस ने कहा कि में इस वक़्त ऐसा नहीं करसकती क्योंकि ये ट्रैफ़िक का वक़्त है और इस दौरान मुझे ज़्यादा भीक मिल जाती है।ग़ुर्बत के इस जुर्म की सज़ा वो तन्हा भोगत रहे हैं क्योंकि किसी अहले ख़ैर ने इस के सर पर शफ़क़त का हाथ नहीं रखा।
पुरहजुम ट्रैफ़िक में अपनी जान हथेली पर लेकर वो अपने बच्चों केलिए भीक मांगती है, उन की ज़िंदगी हर वक़त ख़तरे में होती है। कौन जाने कोई तेज़ रफ़्तार कार, लारी, मोटर सैक़ल या आटो से उन्हें नुक़्सान पहुंचे। इन बच्चों की उम्र पढ़ने लिखने और खेल कूद की है। लेकिन पढ़ना उन के बस की बात नहीं है क्योंकि वो स्कूल की फ़ीस नहीं दे सकते और ना वो यूनीफार्म और किताबें वग़ैरा ख़रीद सकते हैं।कोई दस्त-ए-शफ़क़त आगे बढ़ कर उन्हें इन ख़तरात से बचाकर एक शानदार मुस्तक़बिल नहीं क्यों नहीं देता।
काश! कोई अहले ख़ैर उठे और सड़क की इस पुरख़तर ज़िंदगी से उन बच्चों को किसी स्कूल के पुरअमन माहौल में पहुंचा दे। इन जैसे बच्चों के बारे में सोचना और उन केलिए कुछ करना इजतिमाईज़िम्मेदारी है।