मक्का मस्जिद बम धमाका के पाँच साल

हैदराबाद की तारीख़ी मक्का मस्जिद में बम धमाकों को हुए आज पाँच साल का अर्सा गुज़र चुका है । इस पाँच साल के तवील ( लंबे) अर्सा में इन बम धमाकों के ज़ख्म अभी तक ताज़ा हैं और उन के मुंदमिल होने के कोई आसार-ओ-क़राइन तक नज़र नहीं आते ।

पाँच साल के तवील अर्सा में भी हुकूमतें और नफ़ाज़ क़ानून की एजेंसियां इस बम धमाका के ख़ातियों ( अपराधीयों) को सज़ा दिलवाने में नाकाम हो चुकी हैं। ये नाकामी इस हक़ीक़त के इज़हार के बावजूद है कि ये बम धमाका मुल़्क की शिद्दत पसंद हिन्दू दहश्तगर्द तनज़ीमों की कारस्तानी ( किया हुआ कार्य/काम) है और इसका ख़ुद हिन्दू दहशतगर्दों ने एतराफ़ (भी कर लिया है ।

ये दहश्तगर्द मामूली किस्म के नहीं हैं क्योंकि तक़रीबा ( करीब) दो साल के अर्सा में एक से ज़ाइद ( ज्यादा) धमाकों और दहशतगिरदाना कार्यवाईयों में इन का रोल रहा है और एक से ज़ाइद (ज़्यादा) मुक़द्दमात में उन के रोल का इन्केशाफ़ हो चुका है ।

हिन्दू दहशतगर्दो का मक्का मस्जिद बम धमाका में रोल होने के बावजूद उन को मूसिर अंदाज़ में सज़ाएं दिलवाने में रियासती महकमा पुलिस‍ ओ‍ इंटेलीजेंस तो पूरी तरह नाकाम हो गया था बल्कि रियासती पुलिस ने तो इस धमाका के मुलज़मीन ( अपराधी) और इसकी तहकीकात का रुख तक मोड़ कर इसे मुस्लिम नौजवानों से जोड़ने की हर मुम्किना कोशिश की थी ।

उस वक़्त के एक बदनाम-ए-ज़माना पुलिस ओहदेदार ने तो धमाका के चंद मिनटों के अंदर अंदर ये ऐलान कर दिया था कि ये धमाका शाहिद बिलाल की कारस्तानी (किया हुआ काम) है । ये दावे बाद में यकसर झूटा साबित हो गया जिससे इस तरह के ओहदेदारों की ज़हनियत और नीयतों का भी इज़हार हो गया ।

ना सिर्फ ये बल्कि बेक़सूर मुस्लिम नौजवानों को इस धमाका के इल्ज़ाम में गिरफ़्तार करते हुए जेल भेज दिया गया । उन्हें कैद-ओ-बंद की सऊबतें बर्दाश्त करनी पढ़ें और दौरान तहवील ( लंबे समय तक) उन के साथ इंतिहाई गैर इंसानी सुलूक इख्तेयार करते हुए सज़ाएं दी गयी।

ये हैदराबाद के बेक़सूर मुस्लिम नौजवानों का ही सब्र-ओ-हौसला था जिन्होंने तमाम मुश्किलात को सब्र-ओ-तहम्मुल के साथ बर्दाश्त किया और उन के सब्र और उन के किरदार ने रंग दिखाया और बिलआख़िर ख़ुद दहशतगर्द स्वामी असीमानंद ये एतराफ़ करने पर मजबूर हो गया कि मक्का मस्जिद का बम धमाका इस ने अपने साथियों के हमराह किया था ।

मक्का मस्जिद बम धमाका में मुस्लिम नौजवानों के बेक़सूर होने को ख़ुद अदालत ने भी तस्लीम ( कुबूल) किया है और हाइकोर्ट की जानिब से उन बेक़सूर मुस्लिम नौजवानों को बाइज़्ज़त बरी कर दिया गया । रियासती हुकूमत इन नौजवानों को मुआवज़ा देने पर मजबूर हुई ।

ताहम ये मुआवज़ा भी महिज़ ( सिर्फ) दिखावा था और सब से अहम बात ये रही कि हुकूमत ने इकलेती कमीशन की सिफ़ारिशात के बावजूद इन पुलिस ओहदेदारों की तनख़्वाहों से ये मुआवज़ा वसूल नहीं किया जिन्होंने मुस्लिम नौजवानों पर मज़ालिम (ज़ुल्म) ढाते हुए उन्हें इन मुक़द्दमात में माख़ूज़ किया था ।

इन नौजवानों को इन ओहदेदारों ने ख़ानगी फ़ार्म हाउस में रखते हुए इंसानियत सोज़ अज़ियतें दी थीं। इन पुलिस ओहदेदारों के ख़िलाफ़ कार्यवाई करते हुए उन के ख़िलाफ़ मुक़द्दमात दर्ज नहीं किए गए और ना उन की तनख़्वाहों से रक़म मिनहा करते हुए बेक़सूर नौजवानों की अदा की गई ।

ना सिर्फ ये बल्कि मक्का मस्जिद में हुए बम धमाकों के फ़ौरी ( फौरन) बाद मस्जिद के बाहर निकल कर एहतिजाज करने वाले निहत्ते और ग़मज़दा मुसलमानों को फायरिंग का निशाना बनाने वाले पुलिस ओहदेदारों के ख़िलाफ़ भी कोई कार्रवाई नहीं की गई बल्कि एक ओहदेदार को तो फायरिंग में मुसलमानो को हलाक करने के इनाम के तौर पर तरक़्क़ी से भी नवाज़ा गया ।

ये कांग्रेस हुकूमत का कारनामा रहा जो इस हुकूमत की ताईद करने वाले हवारियों को मिल्लत के तुएं उन की ज़िम्मेदारीयों का एहसास दिलाने के लिए काफ़ी है । जिस सोची समझी साज़िश के तहत तारीख़ी मक्का मस्जिद में बम धमाका किया गया था इसमें पुलिस ने भी माबाद धमाका मुसलमानों को गिरफ़्तार करते हुए रास्त या बिलवास्ता तौर पर अपना रोल अदा किया था ।

इस हक़ीक़त को और असल साज़िश को मंज़रे आम पर लाने के लिए भी कुछ भी नहीं किया गया । इस मुक़द्दमा में अब तक जो कुछ पेशरफ़्त हुई है वो एन आई ए की तहकीकात का नतीजा है और रियासती महकमा पुलिस या दीगर ( अन्य/दूसरे) नफ़ाज़ क़ानून की एजेंसियां तो यकसर नाकाम हो गई हैं ।

उन्हें ना सिर्फ नाकामी हुई बल्कि रियासती पुलिस ने भी सोचे समझे मंसूबे के तहत बम धमाकों के तार मुस्लिम नौजवानों से जोड़ दिए थे ये किसके इशारे पर और किस बुनियाद पर किया गया था इस को भी अब तक मंज़रे आम पर नहीं लिया गया ।

आज मक्का मस्जिद में हुए बम धमाकों के पाँच साल गुज़र चुके हैं। मुसलमानों में आज भी इन धमाकों के ताल्लुक़ ( संबंध) से गम-ओ-ग़ुस्सा मौजूद है । बम धमाका में जो लोग जांबाहक़ हुए और फिर जो पुलिस की गोलियों का शिकार हुए उन को इंसाफ़ दिलाना हुकूमत वक़्त का फ़र्ज़ है लेकिन रियासत में कांग्रेस बरसर-ए-इक्तदार है और ये हुकूमत अपने फ़र्ज़ को पूरा करने में पूरी तरह नाकाम हो गई है ।

ज़रूरत इस बात की है कि ना सिर्फ मक्का मस्जिद में बम धमाका करने वाले हिन्दू दहशतगर्दों को सख़्त तरीन सज़ाएं दिलवाने केलिए अदालतों में मूसिर पैरवी की जाए बल्कि उन के पसेपर्दा दीगर मुहर्रिकात और अनासिर को भी बेनकाब किया जाए इन पुलिस ओहदेदारों के ख़िलाफ़ कार्यवाई की जाए जिन्होंने बेक़सूर नौजवानों को इस मुक़द्दमा में माख़ूज़ करते हुए उन्हें अज़ियतें दी थीं उन ओहदेदारों से जवाबतलब किया जाए जिन्होंने इस धमाका को शाहिद बिलाल से जोड़ने की कोशिश की थी ।

इन इक़दामात के बगैर हुकूमत और पुलिस अपने फ़र्ज़ को पूरा करने का दावे नहीं कर सकती । उसे इंसाफ़ के तक़ाज़ों को लाज़िमा पूरा करना चाहीए ।