मजरूह सुल्तानपुरी (01 अक्तूबर 1919 – 24 मई 2000)

यूनानी हकीम असरारूल हसन खान को शायरी ने मजरूह सुल्तानपुरी बना दिया। सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश पैदा हुए। हकीमी के दौरान शायरी ने शोहरत दिलाई तो प्रैक्टिस बीच में ही छोड़ दी और शेरो-शायरी की दुनिया में मशगूल हो गए। इसी दौरान उनकी मुलाकात मशहूर शायर जिगर मुरादाबादी से हुई।1945 में एक मुशायरे में हिस्सा लेने मुम्बई आए। उनकी शायरी सुनकर ए.आर.कारदार काफी मुतासिर हुए और उन्होंने मजरूह सुल्तानपुरी से अपनी फिल्म के लिए गीत लिखने की पेशकश की। मजरूह सुल्तानपुरी ने कारदार साहब की इस पेशकश को ठुकरा दिया क्योंकि फिल्मों के लिए गीत लिखना वे अच्छी बात नहीं समझते थे।

जिगर मुरादाबादी ने मजरूह सुल्तानपुरी को तब सलाह दी कि फिल्मों के लिए गीत लिखना कोई बुरी बात नहीं है। गीत लिखने से मिलने वाली दौलत राशि में से कुछ पैसे वे अपने परिवार के खर्च के लिए भेज सकते हैं। जिगर मुरादाबादी की सलाह पर मजरूह सुल्तानपुरी फिल्म में गीत लिखने के लिए राजी हो गए। नौशाद ने मजरूह सुल्तानपुरी को एक धुन सुनाई और उनसे उस धुन पर एक गीत लिखने को कहा। मजरूह सुल्तान पुरी ने उस धुन पर ‘गेसू बिखराए, बादल आए झूम के’ गीत लिखा।

मजरूह का अपनी जिंदगी और शायरी के बारे में नजरिया कुछ ऐसा ही था जैसा कि उनका यह गीत कि ‘एक दिन बिक जाएगा माटी के मोल, जग में रह जाएंगे प्यारे तेरे बोल”। उन्होंने चार दहों से ज़ियादा लंबे फ़िल्मी सफ़र के दौरान तकरीबन 300 फिल्मों के लिए लगभग 4000 गीत लिखे। उनकी एक ग़ज़ल यहं पेश है।

ग़ज़ल
डरा के मौज-ओ-तलातुम से हम नशीनों को
यही तो हैं जो डुबोया किए सफ़ीनों को

शराब हो ही गई है बक़दर-ए-पैमाना
बह अज़्म-ए-तर्क निचोड़ा जब आस्तीनों को

जमाल-ए-सुबह दिया, रू ए नौबहार दिया
मेरी निगाह भी देता ख़ुदा हसीनों को

हमारी राह में आये हज़ार मैख़ाने
भुला सके ना मगर होश के क़रीनों को

कभी नज़र भी उठाई ना सोए बादा-ए-नाब
कभी चढ़ा गए पिघला के आबगीनों को

हुए हैं क़ाफ़िले ज़ुल्मत की वादियों में रवाँ
चिराग़-ए-राह किए ख़ूँचिकां जबीनों को

तुझे ना माने कोई तुझ को इस से किया मजरूह
चल अपनी राह, भटकने दे नुक्ता चैनों को