मरहूम मुहम्मद रफ़ी की 33 वीं बरसी

मरहूम मुहम्मद रफ़ी को हम से बिछड़े हुए 33 साल होचुके हैं लेकिन आज भी ऐसा महसूस होता है कि वो हमारे दरमयान मौजूद हैं, शायद इसी लिए फ़नकारों के बारे में कहा जाता है कि वो मरने के बाद भी अपने फ़न के ज़रिया अपने मद्दाहों के दिलों में ज़िंदा रहते हैं।

रमज़ान उल-मुबारक की वजह से जारिया साल मुहम्मद रफ़ी मरहूम की बांद्रा में वाके रिहायश गाह में ज़्यादा चहल पहल नज़र नहीं आई। हमेशा की तरह क़ुरआन ख़वानी और रोज़ा दारों को इफ़तार के इलावा रात का खाना भी सरबराह किया गया और उन की क़ब्र पर चादर गुल पेश करके फ़ातिहा ख़वानी की गई।

मुहम्मद रफ़ी 31 जुलाई 1980 को इस दार-ए-फ़ानी से कूच करगए और अपने पीछे अपने लाखों करोड़ों मद्दाहों को रोता बिलकता छोड़ गए। मुहम्मद रफ़ी ने अपनी ज़िंदगी की आख़िरी रिकार्डिंग धर्मेन्द्र, हेमामालिनी की फ़िल्म आस पास के लिए की थी जिस के बोल थे तू कहीं आस पास है ए दोस्त ।

गाने के ये बोल शायद यही कह रहे थे कि रफ़ी साहब भी इंतिक़ाल के बाद मद्दाहों के दिलों के आस पास ही रहेंगे। उनके फ़र्ज़ंद शाहिद रफ़ी यूं तो अच्छा गा लेते हैं लेकिन गुलूकारी को उन्होंने केरियर बनाने के बारे में कभी नहीं सोचा। मुहम्मद रफ़ी, मुकेश, किशोर कुमार, तलअत महमूद और महिन्द्र कपूर सभी इस दुनिया से जा चुके हैं।

उनके अह्द के सिर्फ़ एक गुलूकार मनाडे ज़िंदा हैं लेकिन उनकी सेहत भी ठीक नहीं है जिस की वजह से एक अर्सा से उन्होंने गुलूकारी तर्क करदी है।