माँ अपनी गोद को दीनी गोद बनाये

इंसानी ज़िंदगी की इब्तेदा माँ के बतन ( पेट) से होती है। बच्चा माँ के पेट से पैदा होकर दुनिया में आता है, इसलिए माँ की गोद को बच्चे का पहला मदरसा कहा जाता है। जब कोई मिस्त्री किसी दीवार की पहली ईंट टेढ़ी रख देता है तो वो दीवार टेढ़ी ही उठती है।

बिलकुल इसी तरह अगर किसी माँ की अपनी ज़िंदगी में दीनदारी नहीं है और वो बच्चे की परवरिश कर रही है तो वो बच्चे में दीन की मुहब्बत किस तरह पैदा कर सकेगी, लिहाज़ा इस पहली ईंट को ठीक करने की ज़रूरत है।

यानी माँ की गोद को देनी गोद बनाने की ज़रूरत है। आज बच्चीयां अपनी उम्र की वजह से माँ बन जाती हैं, लेकिन दीनी तालीम ना होने की वजह से उनको ये पता नहीं होता कि मुझे क्या करना है। वो माँ के मुक़ाम और उसकी ज़िम्मेदारीयों से वाक़िफ़ नहीं होतीं। बेचारी अपनी अक्ल से जो बेहतर समझती है, वही कर गुज़रती है।

कितना अच्छा होता कि उस को दीन की तालीम दी जाती, क़ुरआन-ओ-हदीस के उलूम ( इल्म) इसके सामने होते, अल्लाह वालों की ज़िंदगीयों के हालात उसको मालूम होते, क़दम क़दम पर ये बच्चे को अच्छी हिदायत देती, नसीहत करती, दुआएं देती। फिर उसकी मुहब्बत भरी बातें बच्चे की ज़िंदगी में निखरकर सामने आ जातीं।

औरतों को दीनी तालीम देना इंतिहाई ज़रूरी है। अगर किसी इंसान के दो बच्चे हों, यानी एक बेटा और एक बेटी और उसकी हैसियत इतनी हो कि दो में से एक को तालीम दिला सके तो उस को चाहीए कि बेटी को पहले तालीम दिलवाए, इसलिए कि मर्द पढ़ा तो एक फ़र्द पढ़ा और औरत पढ़ी तो एक ख़ानदान पढ़ा।

आजकल के मर्दों में एक बात आम है कि हदीस ए पाक में आया है कि औरतें अक्ल और दीन में नाक़िस होती हैं। ये बात सौ फ़ीसद ठीक है, उस की वजह ये है कि उन की अक़ल में जज़बातीयत ज़्यादा होती है, ज़रा सी बात पर भड़क उठती हैं, महसूस जल्दी कर लेती हैं, नरम भी जल्द पड़ जाती हैं और गर्म भी जल्दी हो जाती है, तो ये अक़्ल की इफ़रात-ओ-तफ़रीत और कम बेश अक़्ल का नुक़्स है।

दूसरा ये कि अपने जज़बात पर क़ाबू नहीं रख पातीं, जज़बात में आ जाऐं तो दीन की बातों को भी ठुकरा देती हैं, इसलिए फ़रमाया गया कि इनमें अक़्ल और दीन की कमी है। वैसे अगर ये कोई काम करने पर तिल ( अड़) जाएं तो करके दिखाई दिया करती हैं। हदीस ए पाक में है कि औरतों को अक़्ल और दीन के जैसा नाक़िस नहीं देखा, लेकिन ये ऐसी नाक़सात हैं कि बड़े बड़े अक्लमंद मर्दों की अक़्ल को उड़ा देती हैं।

इसलिए ये बात तजुर्बे में आई कि औरतें जब किसी चीज़ को मनवाने पर तिल जाएं, ये ज़िद करें, हट धर्मी करें या ख़ाविंद को प्यार मुहब्बत की गोली खिलाए, ख़ाविंद को मजबूर करके अपनी बात मनवा लेती हैं। लिहाज़ा जब ये दुनिया की बातें मनवा लेती हैं तो दीन की तालीम हासिल करने की बात ये क्यों नहीं मनवा सकतीं।

इसमें ग़लती मर्दों और औरतों दोनों की तरफ़ से है, बाअज़ घरों के मर्द चाहते हैं कि औरतें दीन में आगे बढ़े, मगर औरतों के दिल में शैतानियत ग़ालिब होती है। रस्म-ओ-रिवाज की मुहब्बत होती है, वो आगे क़दम नहीं बढ़ाती और दीनदाराना ज़िंदगी गुज़ारने पर आमादा नहीं होतीं, जब कि कई घरों की औरतें दीनदार होती हैं, वो चाहती हैं कि हमारे मर्द नेक बन जाएं, ताहम मर्दों के अक्ल पर पर्दे पड़ चुके होते हैं, वो सुनी अन सुनी कर देते हैं।

औरतें अपनी बातें रो रोकर उन को समझाती हैं कि यूं ना करो, ये गुनाह ना करो, मगर ये तवज्जा भी नहीं करते तो ऐसे मर्दों की वजह से घर की औरतों की दीन में भी रुकावटें आ जाती हैं। यानी किसी घर में औरत रुकावट बनती है तो किसी घर में मर्द रुकावट बनता है, ताहम इन रुकावटों को दूर करने की ज़रूरत है। मर्दों में जहां दीनदारी का शौक़ होता है, इसी तरह औरतों में भी दीनदारी का शौक़ होता है। उनके अंदर रुहानी तरक़्क़ी की ख़ासीयत और सलाहीयत मौजूद होती है। अगर उन के दिल में अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त की मार्फ़त हासिल करने का शौक़ पैदा हो जाये तो पनजोक़ता ( पाँचो वक्त की) नमाज़ों का एहतेमाम, रात की इबादात और तहज्जुद की पाबंदी उन के लिए मुश्किल नहीं है।

एक मर्तबा मेरा वाशिंगटन जाना हुआ। एक नव मुस्लिम ख़ातून कुछ सवालात पूछने के लिए आई और पर्दा के पीछे बैठ कर इस ने बताया कि मैं पहले यहूदी थी, फिर मुसलमान हो गई। इस ने चंद सवालात पूछे, जिस के जवाब दे दिए गए। मुक़ामी ख्वातीन ने इस नव मुस्लिम ख़ातून की बड़ी तारीफ़ की और एक औरत ने बताया कि ये नमाज़ का इतना एहतेमाम करती है कि इसने नमाज़ों के लिए मुस्तक़िल अलैहदा पोशाकें सिलवाई है।

हर नमाज़ के लिए व़ुज़ू करती है, अच्छे कपड़े पहनती है और फिर इस पर अपनी आबा पहनती है, जो बहुत ख़ूबसूरत होती है, जैसे किसी मुल्क की मलिका हो। फिर मुसल्ले पर इस तरह जम जाती है, जैसे डूब चुकी हो। गुफ़्तगु के दौरान मैंने इस नव मुस्लिम औरत से पूछा कि आप नमाज़ का जिस तरह एहतेमाम करती हैं, उसकी कोई ख़ास वजह बताईए। इस ने कहा क़ुरआन मजीद में अल्लाह ताली ने मर्दों के लिए फ़रमाया है कि तुम अगर मस्जिद में आओ तो ज़ीनत इख़तियार करके आओ (सूरतुल अराफ़) मैं समझ गई कि अल्लाह तआला चाहता है कि जो शख़्स मुसल्ले पर खड़ा हो वो साफ़ सुथरा कपड़ा पहने हुए हो।

फिर दुनिया का दस्तूर भी है कि जब किसी दफ़्तर में किसी अफ़्सर के सामने कोई पेश होता है तो अच्छे लिबास में जाता है, जबकि मैं तो अह्कमुल हाकिमान के सामने खड़ी होती हूँ, इसलिए अच्छा पोशाक पहन कर हाज़िर होती हूँ। फिर जब मैं तकबीर पढ़ती हूँ तो मैं दुनिया को भूल जाती हूँ, बैतुल्लाह मेरे सामने है, जन्नत मेरे दाएं तरफ़, जहन्नुम बाएं तरफ़ और मलकुलमौत मेरी रूह क़ब्ज़ करने के लिए मेरे पीछे मौजूद है और ये मेरी ज़िंदगी की आख़िरी नमाज़ है जो में पढ़ रही हूँ।

यानी अल्लाह की ऐसी नेक बंदीयां आज भी दुनिया में मौजूद हैं, जो अपनी हर नमाज़ को ज़िंदगी की आख़िरी नमाज़ समझ कर पढ़ती हैं। यानी औरत के दिल में अगर नेकी का जज़बा पैदा हो जाये तो फिर ये नेकी के बड़े बुलंद मुक़ामात हासिल कर लेती है। (इक़तिबास)