माँ की दुआ जन्नत की हवा होती है

अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने शरीयत में माँ को बहुत बड़ा मुक़ाम अता किया है। कहते हैं कि माँ की दुआ जन्नत की हवा होती है। जो मुहब्बत की नज़र अपनी वालिदा के चेहरा पर डालता है, अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त एक हज या उमरा का सवाब अता फ़रमाता है। सहाबा किराम रज़ी० ने पूछा जो बार बार मुहब्बत-ओ-अक़ीदत से देखे?। आप ( स०अ०व०) ने फ़रमाया जितनी बार देखेगा इतनी बार हज या उमरा का सवाब पाएगा।

इसीलिए हमारे मशाइख़ ने फ़रमाया कि माँ के क़दमों को बोसा देना काअबा की दहलीज़ को बोसा देने के मुतरादिफ़ ( बराबर) है, इसलिए कि माँ के क़दमों में जन्नत होती है। ख़ुशनसीब है वो इंसान, जिस ने माँ की ख़िदमत की, माँ के दिल को राज़ी कर लिया और माँ की दुआएं हासिल की।

एक वली की वालिदा फ़ौत हो गई। अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने इलहाम फ़रमाया ए मेरे प्यारे बंदे! जिस की दुआएं तेरी हिफ़ाज़त करती थीं, अब वो दुनिया से रुख़स्त हो गई, लिहाज़ा अब ज़रा सँभल के ज़िंदगी गुज़ारना। माँ की दुआएं औलाद के गर्द पहरा देती हैं। औलाद को पता नहीं होता कि माँ कब कब और कहाँ कहाँ बैठी दुआएं दे रही होती है।

ये ज़ात बुढ़ापे की वजह से हड्डीयों का ढांचा बन जाये, फिर औलाद के लिए रहमत‍ ओ‍ शफ़क्क़त का साया होती है। हमेशा औलाद के लिए अच्छा सोचती है, बल्कि औलाद की तरफ़ से तकलीफ़ भी पहुंचे तो उसे बहुत जल्द माफ़ कर देती है। दुनिया में माँ से ज़्यादा जल्द माफ़ करने वाला कोई नहीं है।

अपने बच्चे की तकलीफ़ नहीं देख सकती। इसलिए माँ का हक़ तीन बार बताया गया और चौथी बार बाप का हक़ भी बताया। वाज़िह रहे कि माँ बच्चे की पैदाइश में मशक़्क़त उठाती है और बाप का हिस्सा शहवत के साथ होता है। माँ का नुतफ़ा रहम के ज़्यादा क़रीब होता है कि सीना से आता है, जबकि बाप का नुतफ़ा पुश्त से यानी दूर से आता है, इसलिए माँ के दिल में औलाद की मुहब्बत अल्लाह ने ज़्यादा डाल दी है।

हज़रत सुलेमान अलैहिस्सलाम के ज़माने में दो औरतें अपने बच्चों को साथ लिए जंगल से गुज़र रही थीं कि एक भेड़ीया आया और एक औरत के बच्चा को छीन कर भाग गया। थोड़ी देर के बाद उस औरत के दिल में ख़्याल आया कि ये दूसरी औरत का बच्चा मैं ले लूं। ये सोच कर इसने झगड़ा शुरू कर दिया।

मुआमला हज़रत सुलेमान अलैहिस्सलाम तक पहुंचा। दोनों अपना हक़ जतलाती रही। हज़रत सुलेमान अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया छुरी लाओ, में इस बच्चे के दो टुकड़े करके दोनों ख़वातीन में आधा आधा तक़सीम कर देता हूँ। इन में से जब एक ने ये फ़ैसला सुना तो वो कहने लगी ठीक है, लेकिन जब दूसरी ने सुना तो रोना शुरू कर दिया और कहने लगी मेरे बच्चे के टुकड़े ना किए जाएं, बल्कि इस दूसरी औरत को दे दिया जाये, कम अज़ कम मेरा बच्चा ज़िंदा तो रहेगा।

हज़रत सुलेमान अलैहिस्सलाम समझ गए कि ये बच्चा उसी औरत का है, लिहाज़ा आप ने उसे अता फ़र्मा दिया। ये एक हक़ीक़त है कि माँ कभी बच्चे से ख़ुद तो नाराज़ हो जाती है, लेकिन दूसरों को नाराज़ नहीं होने देती। इसीलिए अगर बाप कभी डांट डपट करता है तो माँ से बर्दाश्त नहीं होता। वो कहती है कि क्यों उसको इतना डॉनते हैं?

ये इस मामता की वजह से है। ख़ुद झिड़की दे देगी, मगर किसी की झिड़की बर्दाश्त नहीं कर सकती।

बच्चा अपनी माँ से जब भी माफ़ी मांगता है, माँ बहुत जल्द माफ़ कर देती है। अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त तो माँ से भी ज़्यादा मोमिनीन पर मेहरबान है, इसलिए अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त से माफ़ी माँगना बहुत आसान है और बिलख़सूस रमज़ानुल-मुबारक के महीना में जो रहमतों का महीना है, परवरदिगार आलम की रहमतों और मग़फ़िरतों के दरवाज़े खुल जाते हैं तो अब तो मग़फ़िरत हासिल करने के लिए बहाने की ज़रूरत है।

माँ ख़ाह कितनी भी नाराज़ हो, मगर बच्चे की तकलीफ़ नहीं देख सकती, माफ़ कर देती है।

हुज़ूर नबी अकरम स०अ०व‍० ने एक मर्तबा एक क़ाफ़िला को देखा, एक माँ परेशान थी, उसको अपने सर पर दुपट्टा का होश भी नहीं था, इसका बेटा गुम हो गया था। वो भागी भागी फिर रही थी और लोगों से पूछ रही थी कि किसी ने मेरे बेटे को देखा हो तो मुझे बता दे।

ये मंज़र भी अजीब होता है कि किसी माँ का जिगर गोशा इससे जुदा हो गया हो। माँ का दिल मछली की तरह तड़पता है। वो अलफ़ाज़ में बयान नहीं कर सकती कि इस पर क्या मुसीबत गुज़रती है। उसकी आँखें तलाश कर रही होती हैं कि मेरा बेटा मुझे नज़र आ जाए।

हुज़ूर नबी अकरम स०अ०व० ने सहाबा किराम रज़ी० से पूछा ये माँ अपने बेटे की वजह से इतनी परेशान है, अगर उसे इसका बेटा मिल जाये तो क्या ये उस को आग में डाल देगी। सहाबा किराम ने कहा या रसूल अल्लाह! कभी नहीं डालेगी। आप ( स०अ०व०) ने फ़रमाया जिस तरह माँ अपने बच्चे को आग में डालना गवारा नहीं करती, इसी तरह अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त भी मोमिन बंदे को आग में डालना गवारा नहीं फ़रमाता लिहाज़ा अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त से माफ़ी माँगना बहुत आसान है, इसलिए कि अल्लाह तआला की मुहब्बत तो सारी दुनिया की माँ से सत्तर गुना ज़्यादा है।

सहाबा-ए-किराम ने एक नौजवान सहाबी के बारे में बताया कि या रसूल अल्लाह! उन पर सुकरात तारी है, मगर रूह नहीं परवाज़ कर रही है। हुज़ूर स००व० ने सूरत-ए-हाल मालूम की तो पता चला कि नौजवान सहाबी की वालिदा उन से नाराज़ हैं। आप ( स०अ०व०) ने वालिदा से सिफ़ारिश की कि अपने बेटे को माफ़ कर दे, मगर वो कहने लगी कि मैं हरगिज़ नहीं माफ़ करूंगी, इसने मुझे बहुत ज़्यादा दुख दिया और बहुत सताया है।

जब आप (स०अ०व०) ने देखा कि माँ अपनी बात पर अड़ी हुई है तो आप (स०अ०व०) ने सहाबा किराम से फ़रमाया लकड़ियां इकट्ठी करके आग जलाओ। जब माँ ने ये सुना तो वो पूछने लगी या रसूल अल्लाह! लकड़ियां क्यों मंगवा रहे हैं?। आप (स०अ०व०) ने फ़रमाया आग में तुम्हारे बेटे को डालेंगे।

इसने जैसे ही ये सुना, इसका दिल मोम हो गया और कहने लगी या रसूल अल्लाह! मेरे बेटे को आग में ना डालें, मैंने अपने बेटे की ग़लतीयों को माफ़ कर दिया। जब एक माँ नहीं चाहती कि इसका बेटा आग में डाला जाये तो फिर रब्बुल इज़्ज़त कैसे गवारा फ़रमाएगा कि बंदा मोमिन जहन्नुम में जाये। मौलाना पीर ज़ुल्फिक़ार अहमद नक़्शबंदी