मियानारवी की इफ़ादीयत

हज़रत अबूहुरैरा रज़ी अल्लाहु तआला अनहु से रिवायत हैके रसूल क्रीम (स०)ने फ़रमाया हर चीज़ के लिए हिर्स-ओ-ज़्यादती है और फिर हर हिर्स-ओ-ज़्यादती के लिए सुस्ती-ओ-सबकी है। पस अगर अमल करने वाले ने मियानारवी से काम
लिया और एतिदाल के क़रीब रहा (और इस तरह इस ने इफ़रात-ओ-तफ़रीत से इजतिनाब किया) तो इस के बारे में उम्मीद रखू (कि वो अपनी मुराद पालेगा) और अगर उसकी तरफ़ से उंगलीयों से इशारा किया गया (यानी इस ने ताअत-ओ-इबादत और औराद-ओ-वज़ाइफ़ की मशग़ूलियत और दुनियावी नेअमतों-ओ-लज़्ज़तों के इजतिनाब में इस लिए मुबालग़ा-ओ-कसरत को इख़तियार किया कि लोगों में आबिद-ओ-ज़ाहिद मशहूर हो और फिर वो लोगों में आबिद-ओ-ज़ाहिद मशहूर भी हो गया) तो तुम उस को (आबिद-ओ-ज़ाहिद और सालिह) शुमार ना करो (क्यूंकि दरहक़ीक़त वो रयाकारों में से है)। (तिरमिज़ी)

हदीस शरीफ़ से ये वाज़िह होता है कि जो शख़्स मियानारवी का रास्ता इख़तियार करता है, सहा अमल करता है और राह रास्त से भटकता नहीं है तो बज़ाहिर इस के बारे में ये उम्मीद रखनी चाहीए कि उसकी आक़िबत सुधर गई और वो नजात पा जाएगा और अगर वो एसा नहीं करेगा, बल्कि इफ़रात-ओ-तफ़रीत की राह पर चल कर दुनियावी इज़्ज़त-ओ-जाह का तलबगार होता है और गंदुम नुमा जो फ़रोशी का शेवा अपनाकर फ़ित्ना-ओ-फ़साद के बीज बोता है तो ज़ाहिर में उस को फ़लाह याब ना समझो और इस का शुमार मुख़लिस देनदारों में ना करो।

रही आक़िबत की बात तो वहां का अंजाम दोनों सूरतों में ग़ैर वाज़िह है, ख़ुदा ही बेहतर जानता हैकि ख़ातमा किस हालत में हो और आख़िरत में क्या मुआमला होगा।

अगरचे आक़िबत के बारे में भी उम्मीद यही रखनी चाहीए कि रहमत बारी ने जिस जिस शख़्स को इताअत-ओ-इबादत की तौफ़ीक़ बख़शी है और राह मुस्तक़ीम पर गामज़न किया है, उसकी आक़िबत ज़रूर संवरेगी और इस का ख़ातमा यक़ीनन ईमान-ओ-इख़लास पर होगा।
उस की रहमत कामला का दस्तूर यही हैके नेको कारों को बरी राह पर कम ही लगाया जा सकता है, जबकि अक्सर यही होता है कि बदकारों को बिलआख़िर नेकी की तरफ़ खींच लिया जाता है