मिज़ाहिया ग़ज़ल

बिजली तो कौंदती है मियाँ आसमान में
और थरथरा रहे हो तुम अपने मकान में

आँखों से सुन रहा हूँ मैं आवाज़ आपकी
तसवीर आपकी नज़र आती है कान में

यूँ सामना हमारा बब्बर शेर से हुआ
जब एक तीर भी ना बचा था कमान में

अब आप शौक़ से मुझे ग़ज़लें सुनाईए
मैंने भी रुई ठोंस ली है अपने कान में

पल्ले हमारे कुछ भी नहीं पड़ रहा है आज
वो बात कररहे हैं नज़र की ज़बान में

हर सिम्त हम को आता नज़र है हरा हरा
वो सब्ज़ कपड़े पहन के बैठे हैं लॉन में

शाना वो सिर्फ़ दाब में बेगम की अपने था
वर्ना ग़ज़ब का क़हर था चंगेज़ ख़ान में

इकबाल शाना